नैतिक गुणों से मिलती है सफलता, बेहतर पैरेंटिंग के लिए इन बातों का रखें खास ख्याल ...

in #parenting2 years ago

भले ही कैडी पैरेंटिंग का कॉन्सेप्ट खेलों से जुड़ा है, लेकिन वे अपने बच्चे के लिए जिस तरह की भूमिका निभाते हैं, वैसा सभी पैरेंट्स निभा सकते हैं। आईए डॉ. मोनिका शर्मा से जानते है आपको कैसे बनना है कैडी पैरेंट्स... जरूरत पड़ने पर हेल्प करना, हर कंडीशन में उसे सपोर्ट करने के लिए तैयार रहना और नाकामयाबी या हताशा के समय में मोटिवेट करना, ऐसी पैरेंटिंग के जरिए ही बच्चा प्रैक्टिकली, मौरली स्ट्रॉन्ग बनता है, जीवन में सफल होता है।
अपने देश की चर्चित गोल्फ प्लेयर अदिति अशोक के पापा रियो ओलंपिक (2016) में उनके ‘कैडी’ बने थे। टोक्यो ओलंपिक (2021) में उनकी मां ने ‘कैडी’ की भूमिका निभाई। आपको बता दें कि ‘कैडी’ वह सहयोगी होता है, जो खिलाड़ियों का बैग और अन्य जरूरी सामान उठाने में मदद करता है, खेल के दौरान उनके आस-पास रहता है, उनको एडवाइस देता है, मौरल सपोर्ट देकर मनोबल बढ़ाता है। देश की इस चैंपियन बेटी के पैरेंट्स की इस भूमिका और उसके जीत दर्ज करने के रिकॉर्ड इस बात को साबित करते हैं कि बच्चों के लिए माता-पिता से अच्छा ‘कैडी’ यानी हेल्पर-सपोर्टर-मोटिवेटर कोई और नहीं हो सकता है।
हर स्थिति में देते रहें साथ
जिंदगी की जद्दोजहद का खेल हो या खेल के मैदान की अनिश्चितता, परिस्थिति के मुताबिक सलाह-समझाइश देने और संबल बनने के मोर्चे पर पैरेंट्स की बराबरी कोई नहीं कर सकता। संबल और सहजता की जो डोर माता-पिता और बच्चे के रिश्ते को बांधती है, वह किसी दूसरे बंधन में संभव ही नहीं। अभिभावक, कामयाबी के दौर में अपने बच्चों की खुशी में शामिल होते ही हैं, नाकामयाबी के कठिन पड़ाव पर भी वे उनके भीतर हौसले को कमजोर नहीं होने देते हैं। हर तरह की औपचारिकता से परे पैरेंट्स, बच्चों को गाइड करने के लिए हर फ्रंट पर न सिर्फ तैयार रहते हैं बल्कि भविष्य में सामने आ सकने वाले हालातों को लेकर चेताते भी हैं। दरअसल, पैरेंट्स यह जानते-समझते हैं कि शिखर छूने के दौर में ही नहीं, डिगने के समय भी उन्हें अपने बच्चों का हाथ थामे रहना है। इसीलिए स्पष्ट कहने, चेताने और कमियों के सुधार की राह सुझाने का काम भी माता-पिता से बेहतर कोई और नहीं कर सकता। जरूरी है कि हर बच्चे के पैरेंट्स उसके ‘कैडी’ बनें। उनका साथ देते हुए जीवन की असलियत से मिलवाने वाले मार्गदर्शक बनें। सही मायने में देखा जाए तो जिंदगी भी एक खेल का मैदान ही है, जहां हर दिन नई पारी खेलनी होती है। हार-जीत का सामना करना पड़ता है। गिरना-उठना, टूटना-संभलना होता है। ऐसे हर मोड़ पर अभिभावक मजबूती से हाथ थामे रहें, इससे बेहतर बच्चों के लिए भला और क्या हो सकता है?
सिखाते रहें व्यावहारिकता का पाठ
बच्चों की प्रतिभा तराशने में सबसे अहम भूमिका पैरेंट्स की ही होती है। उनका तजुर्बा बच्चों को जज्बाती तौर पर मजबूत और सामाजिक मोर्चे पर व्यावहारिक समझ पैदा करता है। करियर के चुनाव में मदद करने से लेकर रहन-सहन की समझ तक, पैरेंट्स ही बच्चों को गाइड करने का काम करते हैं। कितना कुछ तो बच्चे अपने पैरेंट्स की जिंदगी को देखकर ही सीखते-समझते हैं। उनकी छोटी से छोटी आदत, बातचीत का तरीका, शारीरिक हाव-भाव और भावुकता बहुत सहजता से बच्चों के व्यक्तित्व में उतर आता है, बच्चों के व्यवहार का हिस्सा बन जाता है। साइकोलॉजी की इमिटेशन थ्योरी भी बताती है कि बच्चे सामाजिक व्यवहार अपने माता-पिता से ही सीखते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि सामाजिक व्यवहार की समझ जिंदगी की हर पारी में काम आती है। हार को स्वीकारना और जीत को संभालना सिखाती है। टूटने-बिखरने के बजाय फिर कोशिश करने की हिम्मत देती है। यानी, अभिभावकों का स्नेह, साथ किसी ना किसी रूप में हर इंसानी मनोभाव को बच्चे के मन में मजबूती देता है, जिससे बच्चों का व्यक्तित्व पूर्णता पाता है।

नैतिक समझ-संस्कार करते रहें पोषित
मौजूदा दौर में नैतिक समझ और संस्कार से जुड़ी बातें गैरजरूरी मानी जाने लगी हैं, जबकि जीवन को थामने का काम आज भी इन्हीं के हिस्से होता है। ऐसे ही सबक बच्चों को गलतियां करने से बचाते हैं। बुरी आदतों के भंवर में गुम हो जाने से पहले ही सचेत कर देते हैं। इतना ही नहीं आपसी समझ का मजबूत घेरा बनाने में भी इनकी अहम भागीदारी होती है। सबसे जरूरी पक्ष यह है कि बच्चों के भीतर नैतिक मूल्य विकसित करने के लिए खाद-पानी देने का काम सिर्फ पैरेंट्स ही कर सकते हैं। बच्चों को नैतिक समझ, परंपरागत संस्कार और जमीन से जुड़े रहने की सीख अभिभावकों से ही मिलती है। कहना गलत नहीं होगा कि मानसिक उलझनों और हर मामले में मिस गाइड होने के इस दौर में मन-जीवन को ठहराव देने वाले इन संस्कारों की जरूरत कम होने के बजाय और बढ़ी ही है। यह एक ऐसी डोर है, जो परिवार से जोड़े रखती है। परिवेश के प्रति समझ पैदा करती है। खुशी या गम के दौर में भावनाओं और संवेदनाओं की समझ का पाठ पढ़ाती है। लेखक और सामाजिक मनोवैज्ञानिक फ्रेड ब्रायंट के मुताबिक, परिवार के साथ छुट्टियां और उत्सव मनाने जैसी छोटी लगने वाली बातों को मन से जीना, रिश्तों को मजबूत और मानसिक सेहत को बेहतर बनाता है। यही वजह है कि सधी हुई समझ के साथ जीना और अपने संस्कारों से जुड़े रहना खुशहाल जीवन के लिए जरूरी हो गया है। यह जुड़ाव अभिभावकों से मिली सीख से मजबूती पाता है।
कहने का सार यही है कि बच्चे का व्यक्तित्व कैसा विकसित होगा, उसकी प्रतिभा कितनी निखरेगी, उसमें किस तरह के व्यावहारिक, सामाजिक और नैतिक गुण पनपेंगे, ये सब काफी हद तक आपकी पैरेंटिंग पर ही निर्भर करता है।