आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण की वैधानिकता परखेगा सुप्रीम कोर्ट

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आरक्षण देश में हमेशा से ही बहस, विवाद और राजनीति का विषय रहा है। हाल में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण की वैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई का निर्णय लिया गया तो यह विषय पुन: चर्चा में आ गया है। गौरतलब है कि इस समय देश में अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को मिलाकर लगभग पचास प्रतिशत जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था है। लंबे समय से सामान्य वर्ग के पिछड़े तबकों के लिए आरक्षण की मांग को देखते हुए 2019 की शुरुआत में मोदी सरकार द्वारा आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग के लिए दस प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की गई थी, जो कि अब केंद्र से राज्य तक लागू हो चुका है। आठ लाख से कम वार्षिक आय तथा एक निश्चित मात्रा से कम जमीन का स्वामित्व रखने वाले परिवार के लोग इस आरक्षण के लिए पात्र होते हैं।

इस आरक्षण की ही वैधानिकता को चुनौती देने वाली अनेक याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में डाली गई थीं, जिन पर अब सुनवाई होनी है, लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल यही है कि जातिगत या आर्थिक, किसी भी प्रकार के आरक्षण की बात करते हुए क्या यह देखना जरूरी नहीं रह गया है कि आरक्षण अपने उद्देश्यों में कितना सफल हो रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि जो आरक्षण एक अस्थायी व्यवस्था के तौर पर शुरू किया गया था, उसे राजनीतिक दलों तथा संबंधित जाति-समूहों द्वारा एक अंतहीन प्रक्रिया में बदल दिया गया है? इन प्रश्नों का उत्तर आरक्षण की समीक्षा में छिपा है, जिससे अब तक परहेज किया जाता रहा है। सर्वोच्च न्यायालय को आरक्षण से संबंधित इस पहलू पर भी ध्यान देना चाहिए।

इस आरक्षण की ही वैधानिकता को चुनौती देने वाली अनेक याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में डाली गई थीं, जिन पर अब सुनवाई होनी है, लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल यही है कि जातिगत या आर्थिक, किसी भी प्रकार के आरक्षण की बात करते हुए क्या यह देखना जरूरी नहीं रह गया है कि आरक्षण अपने उद्देश्यों में कितना सफल हो रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि जो आरक्षण एक अस्थायी व्यवस्था के तौर पर शुरू किया गया था, उसे राजनीतिक दलों तथा संबंधित जाति-समूहों द्वारा एक अंतहीन प्रक्रिया में बदल दिया गया है? इन प्रश्नों का उत्तर आरक्षण की समीक्षा में छिपा है, जिससे अब तक परहेज किया जाता रहा है। सर्वोच्च न्यायालय को आरक्षण से संबंधित इस पहलू पर भी ध्यान देना चाहिए।

साथ ही आरक्षण के जिस दायरे को समय के साथ सीमित करने की बात संविधान निर्माताओं ने सोची थी, वह सीमित होने के बजाय और बढ़ता जा रहा है। आरक्षण की समीक्षा न होने एवं उसके दायरों के निरंतर बढ़ते जाने के लिए प्रमुख कारण यही है कि आज आरक्षण जाति आधारित राजनीति करने वाले दलों और नेताओं के लिए तुष्टीकरण की राजनीति का एक बड़ा औजार बन गया है। ऐसे कई दल हैं, जिनके अस्तित्व का आधार ही आरक्षण है। आरक्षण के वादे के दम पर तमाम दलों द्वारा एक जाति समूह को अपनी तरफ करने का सफल प्रयास किया जाता रहा है। इन सब बातों को देखते हुए अब यह समझना बेहद आसान है कि इस तुष्टीकरण की राजनीति के ही कारण ज्यादातर राजनीतिक दलों द्वारा जाति आधारित आरक्षण की वकालत और इससे इतर आरक्षण पर किसी भी पक्ष का विरोध किया जाता है।

वास्तव में आज इस बात की पुख्ता तौर पर जरूरत महसूस होती है कि आरक्षण की समीक्षा हो तथा उसके हानि-लाभ का आकलन कर उसके वर्तमान स्वरूप को कायम रखने या न रखने का निर्णय लिया जाए। डा. आंबेडकर की भी यही इच्छा थी और इसी के लिए उन्होंने समय-समय पर आरक्षण की समीक्षा का प्रविधान भी किया था। यह सही है कि समाज की कथित निम्न जातियों के तमाम लोग आज भी अक्षम और विपन्न होकर जीने को मजबूर हैं, लेकिन इन जातियों-जनजातियों में अब ऐसे भी लोगों की कमी नहीं है, जो कि आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक हर तरह से सशक्त हो चुके हैं, पर बावजूद इस उन्नति के जाति आधारित आरक्षण के कारण बदस्तूर उन्हें भी आरक्षण का लाभ मिलता जा रहा है।

ऐसे ही लोगों के लिए 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने क्रीमीलेयर शब्द का इस्तेमाल किया था। इसके तहत सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि क्रीमीलेयर यानी कि संवैधानिक पद पर आसीन पिछड़े तबके के व्यक्ति के परिवार एवं बच्चों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए, लेकिन जाने क्यों सर्वोच्च न्यायालय के क्रीमीलेयर की परिभाषा पर भी अमल करने में हमारा सियासी महकमा हिचकता और घबराता रहा? सर्वोच्च न्यायालय इस विषय में कोई सवाल न उठाए इसके लिए क्रीमीलेयर की आय में भारी-भरकम इजाफा कर उसकी परिभाषा को ही बदल दिया गया। समय की जरूरत है कि आरक्षण की वर्तमान जाति आधारित व्यवस्था की समीक्षा की जाए, जो देश में जातिगत राजनीति का एक उपकरण भर बनकर रह गई है।