स्त्री
ईर्ष्या की वह्नि में जो, सुलगे जीवन भर
सदृश नही उसे होना है ;
मद में लिप्त!कलत्र को
ख़ुद अर्जुन!
खुद ही कृष्ण होना है!
स्त्री ऐसी भी होती है//
दशकों की निराशा
चेहरे से गिरती है
आँखों से उसकी राख सी झड़ती है
फिर ले खजूर की झाड़ू से
सब पर धूल उड़ाती है
स्त्री ऐसी भी होती है//
वाचाल!
चँचल!!
यायावर!!!
लुतरी...!
स्वगुणो से सम्पन्न;
जब-जब प्रेम में खाई चोट
स्त्री! शिखण्डी हो जाती है//
आस-पास उसके लोग नही चलते
चलते हैं तो प्रश्नचिन्ह;
घात लगा के बन चोरक वो
आह्लाद चुरा लेती है,
प्रतिस्पर्धा है मन को मन से
मन से ही हारी जाती है
स्त्री ऐसी भी होती है//
मूँह दबा के
खपरैल-खपरैल
तिनका-तिनका बिनती है
रात बासी बासन में, पुती राख सी
जिव्हा से श्राप बरसाती है,
स्त्री! ऐसी भी होती....है।।।
🍃***🦋![113e471de110642754021ef80c036e02.jpg](https://images.wortheum.news/DQmVoeqcEomvBZ2soj5w7v![113e471de110642754021ef80c036e02.jpg](https://images.wortheum.news/DQmVoeqcEomvBZ2soj5w7vpoy3wHDXXgEAnnVoiG7c4m5ey/113e471de110642754021ef80c036e02.jpg)poy3wHDXXgEAnnVoiG7c4m5ey/113e471de110642754021ef80c036e02.jpg)