कबाड़ लेने जाता तो लोग जमीन साफ करवा लेते थे, आज 10 करोड़ टर्नओवर, जानिए पूरी कहानी

in #wortheum2 years ago

समय- सुबह के 9 बजे। जगह- भोपाल का गोविंदपुरा इलाका। कुछ लोग एक बड़े कबाड़खाने में लोहे की पट्टियां काट रहे हैं तो कुछ बोरे में भरे कबाड़ को पलट रहे हैं।

कोने में गणपत गुर्जर कंप्यूटर पर नजरें गड़ाए हैं। वो यह देख रहे हैं कि भोपाल के किन-किन जगहों से कबाड़ बेचने की ऑनलाइन या कॉल बुकिंग आई है। फिर सभी कर्मचारियों को उनका काम अलॉट करते हैं। सभी स्टाफ ड्रेस चेंज करते हैं और तय रूट के हिसाब से अपनी गाड़ियों को लेकर निकल जाते हैं। शाम तक कबाड़ से भरी सभी गाड़ियां वापस आ जाती है।

गोविंद पटेल इस कबाड़खाने के गार्ड हैं। गणपत गुर्जर अकाउंट का काम संभालते हैं। वो कबाड़ की आई बुकिंग के मुताबिक सभी स्टाफ को उनका काम अलॉट करते हैं।
गोविंद पटेल इस कबाड़खाने के गार्ड हैं। गणपत गुर्जर अकाउंट का काम संभालते हैं। वो कबाड़ की आई बुकिंग के मुताबिक सभी स्टाफ को उनका काम अलॉट करते हैं।
अब आप थोड़ा सोच में पड़ गए होंगे कि रद्दी पड़े न्यूजपेपर, टूटी हुई कुर्सी, जंग लगा लोहे का सामान, टूटे-फूटे बर्तन जैसे कबाड़ को हम बेचने के लिए खिड़की से कान लगाए रहते हैं कि कब घर की गली से ठेला या साइकिल से आने वाले किसी कबाड़ी वाले की आवाज सुनाई देगी, हम दौड़ते हुए अपना कबाड़ बाहर लेकर आएंगे, मोल-भाव करेंगे, बेचेंगे।

फिर इसमें ये ऑनलाइन कबाड़ का क्या माजरा है? दरअसल, जैसे हम खाना से लेकर कपड़ा और सामान अब घर पर बैठे-बैठे ऑनलाइन ऑर्डर करते हैं और सामान घर तक पहुंच जाता है। उसी तरह से ऑनलाइन कबाड़ खरीदने का काम 2015 से भोपाल के अनुराग असाटी और कवींद्र रघुवंशी कर रहे हैं।

अनुराग और कवींद्र ‘द कबाड़ीवाला’ के को-फाउंडर हैं। एक ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है तो दूसरे प्रोफेसर रह चुके हैं। अनुराग कहते हैं, 2013 में पढ़ाई के दौरान रद्दी न्यूजपेपर बेचने को लेकर दिक्कते हुई। पता ही नहीं चल पा रहा था कि किस वक्त कबाड़ी वाला आएगा।

कई सारे उतार-चढ़ाव और समाज के छुआछूत रवैये के बाद आज ‘द कबाड़ीवाला’ का सालाना टर्नओवर 10 करोड़ से अधिक का है।
कई सारे उतार-चढ़ाव और समाज के छुआछूत रवैये के बाद आज ‘द कबाड़ीवाला’ का सालाना टर्नओवर 10 करोड़ से अधिक का है।
यही से ऑनलाइन कबाड़ खरीदने-बेचने को लेकर आइडिया आया। दोस्त कवींद्र से बात की। हम दोनों ने मिलकर कबाड़ का स्टार्टअप खोने का प्लान किया।

कई सारे उतार-चढ़ाव और समाज के छुआछूत रवैये के बाद आज ‘द कबाड़ीवाला’ का सालाना टर्नओवर 10 करोड़ से अधिक का है। 5 शहरों- भोपाल, इंदौर, लखनऊ, रायपुर और नागपुर में यह चल रहा है। करीब 300 लोग काम कर रहे हैं। आगे 30 से 40 शहरों में इसे स्टार्ट करने कि प्लानिंग है।

भोपाल की रहने वाली सिंडा जोशे टीचर हैं। वो ‘द कबाड़ीवाला’ को अपना कबाड़ बेचते हुए कहती हैं, पहले ठेला से कबाड़ लेने के लिए कबाड़ वाले आते थे। यदि ज्यादा कबाड़ है तो एक बार में आप नहीं बेच सकते थे। कब वो आएंगे, टाइम का भी पता नहीं होता था।

लेकिन ऑनलाइन कबाड़ बेचने की सुविधा के बाद ये बहुत आसान हो गया है। ऐप के जरिए हमें पता है कि किस मटेरियल का कितना रेट मिलेगा। कौन-कौन सा कबाड़ हम बेच सकते हैं।

जब 2015 में अनुराग ने ‘द कबाड़ीवाला’ नाम से वेबसाइट और ऐप बनाया था तो उस वक्त ना तो हर हाथ स्मार्टफोन था और ना ही लोग ऑनलाइन से उतने परिचित थे। अनुराग और कवींद्र ने घर-घर जाकर लोगों को इसके बारे में बताया।

अनुराग कहते हैं, जिस तरह से किसी गली-मुहल्ले में रहने वाले सफाई-कर्मचारियों को लोग नीच नजरों से देखते हैं। कुछ इसी तरह का व्यवहार कबाड़ी वालों के साथ भी लोग करते हैं।
अनुराग कहते हैं, जिस तरह से किसी गली-मुहल्ले में रहने वाले सफाई-कर्मचारियों को लोग नीच नजरों से देखते हैं। कुछ इसी तरह का व्यवहार कबाड़ी वालों के साथ भी लोग करते हैं।
अनुराग एक किस्सा बताते हैं, पहली बुकिंग आई तो हम 3 लोग एक मोटरसाइकिल से उस लोकेशन पर कबाड़ लेने के लिए गए थे। जब गेट खुला तो देखा की सामने जूनियर है।

उसने तपाक से कहा, सर इंजीनियरिंग करके कबाड़ इकठ्ठा कर रहे हैं। कुछ और काम कर लीजिए। कहीं जॉब कर लीजिए, लेकिन हमें पता था कि इसका बहुत बड़ा बाजार है। जिस सामान को हम यूज करने के बाद फेंक देते हैं, उसका रीसाइक्लिंग के बाद फिर से इस्तेमाल हो सकता है।

जिस तरह से किसी गली-मुहल्ले में रहने वाले सफाई-कर्मचारियों को लोग नीच नजरों से देखते हैं। कुछ इसी तरह का व्यवहार कबाड़ी वालों के साथ भी लोग करते हैं। हालांकि, अब धीरे-धीरे चीजें थोड़ी बदल रही है।

अनुराग एक और किस्सा बताते हैं। कहते हैं, शुरुआत के कुछ साल तो ऐसे थे कि कबाड़ लेने जाने पर लोग हमसे उस जगह को भी साफ करवा लेते थे। मानो हमें छूने पर वो छुआ जाएंगे। हम अछूत हैं। पानी के लिए भी नहीं पूछते थे। उन्हें ऐसा लगता था कि हम अनपढ़, नीची जाति से हैं। कहते थे- दूर खड़ा रहो।

इस बिजनेस के लिए परिवार वालों को भी मनाना अनुराग और कवींद्र के लिए आसान नहीं था। कवींद्र बताते हैं, दोनों के परिवार वालों का लगभग सेम रिएक्शन था। जब घर वालों को पता चला कि हम कबाड़ का स्टार्टअप खोलने जा रहे हैं तो वो बिफर पड़ें।

उनका कहना था कि एक पढ़ा लिखा व्यक्ति कबाड़ का काम करेगा। इससे गंदी चीजें क्या हो सकती है? समाज क्या कहेगा? लेकिन जब उन्हें बताया कि पूरी प्लानिंग के साथ हम इसे शुरू करने जा रहे हैं। जैसे और काम है, उसी तरह से ये भी है। बिजनेस और एनवायरमेंट के लिहाज से ये अच्छी ऑपर्चुनिटी है। हम ऑनलाइन मॉडल को अप्लाई कर रहे हैं।

अनुराग कहते हैं, दिक्कत होती है कि जब हम किसी आइडिया पर वर्क करते हैं तो कुछ ज्यादा ही सोचने लगते हैं। समाज क्या कहेगा, परिवार वाले क्या सोचेंगे? नुकसान होगा या फायदा…

दोस्तों और परिवार के सपोर्ट से 25 लाख रुपए से इस स्टार्टअप को शुरू किया था। लोगों को इसके बारे में अवेयर किया कि जिस कबाड़ को हम फेंकते हैं, उससे पैसे भी कमाए जा सकते हैं। ऑनलाइन कबाड़ बेचिए।

ऐसा भी नहीं है कि अनुराग और कवींद्र कबाड़ बेचकर रातोरात करोड़पति बन गए। शुरूआत में उन्हें मार्केट की उतनी समझ नहीं थी। लोगों ने खूब बेवकूफ बनाया। अनुराग एक दिलचस्प कहानी बताते हैं।

कहते हैं, किसी को एक पुराना कंप्यूटर बेचना था। बुकिंग आई और जब हम लेने गए तो कस्टमर ने कहा 5,000 रुपए में देंगे। हमें लगा ये कंप्यूटर है। पुराने की इतनी कीमत तो होगी ही, खरीद लिया। जब कबाड़ में हमने बेचा तो 500 रुपए में बिका।

जिसके बाद अलग-अलग मटेरियल को लेकर मार्केट रेट पता किया। उसी हिसाब से अब रेट तय होता है। अलग-अलग टाइप के कबाड़ का रेट चार्ट वेबसाइट और ऐप पर पहले से अपलोड रहता है ताकि कस्टमर को पता रहे कि वो जिस सामान को बेच रहा है, उसकी उन्हें कितनी कीमत मिलेगी।

कवींद्र कहते हैं, वेयरहाउस में कैटेगरी के हिसाब से कबाड़ को अलग-अलग रखा जाता है। जैसे- प्लास्टिक मटेरियल को प्लास्टिक कैटेगरी में, मेटल मटेरियल को मेटल कैटेगरी में...
कवींद्र कहते हैं, वेयरहाउस में कैटेगरी के हिसाब से कबाड़ को अलग-अलग रखा जाता है। जैसे- प्लास्टिक मटेरियल को प्लास्टिक कैटेगरी में, मेटल मटेरियल को मेटल कैटेगरी में...
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बिजनेस मॉडल को लेकर कवींद्र बताते हैं, जिन शहरों में हम काम कर रहे हैं वहां का कोई भी व्यक्ति वेबसाइट, ऐप या कॉल के जरिए अपना कबाड़ बेचने की बुकिंग कर सकता है।

बेचने का टाइम और दिन सलेक्ट करना होता है। किस-किस तरह के मटेरियल आपके पास हैं, ये ऑप्शन में चुनना होता है। रिक्वेश्ट के बाद उनके घर या फैक्ट्री से हम कबाड़ रिसीव कर लेते हैं।

वेयरहाउस में कैटेगरी के हिसाब से कबाड़ को अलग-अलग रखा जाता है। जैसे- प्लास्टिक मटेरियल को प्लास्टिक कैटेगरी में, मेटल मटेरियल को मेटल कैटेगरी में, न्यूजपेपर को न्यूजपेपर कैटेगरी में… फिर यहां से सेग्रीगेशन प्रोसेस यानी कटाई-छटाई का काम स्टार्ट होता है।

बंद जूस-लस्सी वाले पैकेट यानी टेट्रा पैक और मैट यानी गद्दा को भी रीसाइक्लिंग के लिए भेजते हैं। कवींद्र बताते हैं, प्लास्टिक की बोतल या अन्य इस तरह के फैले हुए आइटम की छटाई के बाद इसे कंप्रेस यानी मशीन के जरिए दबाया जाता है ताकी वो एक बंडल की शक्ल में बदल जाए।

वहीं, गद्दा जब फट जाता है या पुराना हो जाता है तो हम ऐसे ही फेक देते हैं, लेकिन इसे भी रीसाइक्लिंग किया जा सकता है। 800 से ज्यादा गद्दा हम कलेक्ट कर चुके हैं। जो गद्दे जिस मटेरियल से बने होते हैं, उसे उस कैटेगरी के हिसाब से रीसाइक्लिंग किया जाता है।

अनुराग बताते हैं कि जिस मटेरियल का जहां रीसाइक्लिंग यूनिट है, उसे वहां भेज दिया जाता है। जैसे न्यूजपेपर को न्यूजपेपर रीसाइक्लिंग इंडस्ट्री में भेजा जाता है तो प्लास्टिक को प्लास्टिक रीसाइक्लिंग इंडस्ट्री को। देश के अलग-अलग राज्यों में यह है।

अनुराग अभी कबाड़ के कलेक्शन और फिर उसे रीसाइक्लिंग यूनिट को भेजने तक का ही काम कर रहे हैं। अपना कबाड़ वो गुजरात, पंजाब, उत्तराखंड बेस्ड रीसाइक्लिंग यूनिट में भेजते हैं।

अभी ‘द कबाड़ीवाला’ पेपर, प्लास्टिक, मेटल, ई-वेस्ट जैसे 40 से अधिक टाइप के कबाड़ को पीक करता है। अनुराग मध्य प्रदेश के वेस्ट मैनेजमेंट के ब्रांड एंबेसडर भी हैं1655019051835.jpg

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Good story