"बेटा करोड़पति: वृद्ध आश्रम में सिसकती मां की कहानी, बुजुर्गों की भावुकता को छू लेगी"
बरेली 17 सितम्बरः(डेस्क)पितृ पक्ष के दौरान, जब लोग अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध और तर्पण करते हैं, तब कुछ ऐसे भी लोग हैं जो अपने जीवित माता-पिता से मुंह मोड़ लेते हैं। बरेली के बुखारा मोड़ पर स्थित समाज कल्याण विभाग द्वारा संचालित वृद्ध आश्रम में एक महिला की कहानी सुनने को मिली, जिसने अपने बेटे की करोड़पति स्थिति का जिक्र करते हुए बताया कि उसके पास मां को रखने के लिए घर में जगह नहीं है।
महिला, जो मूलरूप से शहर के एक मोहल्ले की निवासी हैं, ने बताया कि उनके दो बच्चे हैं—एक बेटा और एक बेटी। दोनों की शादी हो चुकी है। उनकी बेटी का पति सरकारी कर्मचारी है, जबकि बेटा एक कस्बे में किराने का थोक व्यापारी है। पति की मौत के बाद, वह अपनी बेटी के साथ रहने लगीं, लेकिन चार महीने पहले बेटी ने उन्हें रखने से मना कर दिया। इसके बाद जब वह बेटे के पास गईं, तो उसने भी घर में जगह न होने का बहाना बनाते हुए उन्हें रखने से इनकार कर दिया। इस स्थिति में मजबूर होकर, महिला वृद्ध आश्रम में रहने लगीं। अपनी कहानी बताते हुए उनकी आंखों में आंसू आ गए।
वृद्ध आश्रम में एक और बुजुर्ग महिला ने अपनी दास्तान साझा की। शाहजहांपुर निवासी इस वृद्ध महिला ने बताया कि उनके तीन बेटे थे, लेकिन सबसे छोटे बेटे की मौत हो चुकी है। कोरोना महामारी के दौरान, उनका मझला बेटा उन्हें वृद्ध आश्रम में छोड़ गया था। कुछ समय तक वह उनसे मिलने आता रहा, लेकिन फिर उसकी भी मौत हो गई। अब वह अपने परिवार के बारे में कुछ नहीं जानतीं और न ही कोई उनसे मिलने आता है।
इन दोनों महिलाओं की कहानियां न केवल व्यक्तिगत दुख को दर्शाती हैं, बल्कि यह भी दिखाती हैं कि कैसे समाज में परिवारों की जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। वृद्ध आश्रम में रहने वाली इन महिलाओं का दर्द यह बताता है कि कैसे समाज में बुजुर्गों के प्रति सम्मान और देखभाल की कमी हो रही है।
स्थानीय निवासियों का कहना है कि ऐसी घटनाएं समाज के लिए चिंता का विषय बन गई हैं। वृद्ध आश्रमों में रहने वाले बुजुर्गों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, और यह स्थिति इस बात का संकेत है कि परिवारों में एकजुटता और सहानुभूति की कमी हो रही है।
समाज कल्याण विभाग ने इस मुद्दे पर ध्यान देने का आश्वासन दिया है और कहा है कि वे वृद्धों के कल्याण के लिए विभिन्न योजनाएं लागू करेंगे। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या ये योजनाएं वास्तव में उन बुजुर्गों की मदद कर पाएंगी जो अपने ही परिवार से बेदखल हो चुके हैं?
इस प्रकार की घटनाएं हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या हम अपने बुजुर्गों को उनके अंतिम दिनों में अकेला छोड़ने का अधिकार रखते हैं? क्या हमें उनके प्रति अधिक संवेदनशीलता नहीं दिखानी चाहिए? इन सवालों के जवाब हमें समाज के रूप में ढूंढने होंगे ताकि हम सभी बुजुर्गों को उनकी गरिमा और सम्मान के साथ जीने का अवसर दे सकें।