कीटनाशकों के प्रभाव से फैले प्रदूषण से कम हो रहे कौवे

in Jhansi Mandal2 days ago

**झांसी 17 सितंबर:(डेस्क)कीटनाशकों के बढ़ते प्रभाव से कौवों की संख्या में कमी
कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग से पर्यावरण में होने वाले प्रदूषण का असर इंसानों के साथ-साथ पक्षियों पर भी पड़ रहा है। **

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इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कौवों की संख्या में लगातार गिरावट। पहले झांसी में सुबह घर की मुंडेर पर बैठे कौवों की कांव-कांव सुनकर लोग मेहमानों के आने का संकेत समझ लेते थे और उनके आने का इंतजार करते थे। वहीं, पितृपक्ष में नदी, तालाब के अलावा तर्पण में भी कौवों का काफी महत्व माना जाता है। पितृपक्ष में पितरों को तर्पण के अलावा कौवों को अन्नदान किया जाता है। लेकिन पर्यावरण में प्रदूषण होने के कारण अब कौवे कम ही नजर आते हैं।

कौवों की संख्या में कमी के कारण
कौवों की संख्या में कमी के कई कारण हैं:
कीटनाशकों का बढ़ता प्रयोग: कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग से पर्यावरण में होने वाला प्रदूषण कौवों के लिए घातक साबित हो रहा है। कीटनाशकों से दूषित होने से कौवों की मृत्यु हो जाती है या वे बीमार पड़ जाते हैं।
वृक्षों की कटाई और शहरीकरण: बढ़ते शहरीकरण और वृक्षों की कटाई के कारण कौवों के रहने और खाने के स्रोत कम हो गए हैं। पुराने मोहल्लों और सोसायटियों में तो कौवे दिखाई ही नहीं देते हैं।

मोबाइल टावरों की बढ़ती संख्या: मोबाइल टावरों की बढ़ती संख्या से भी कौवों की प्रजाति प्रभावित हो रही है। मोबाइल टावरों के विकिरण कौवों के लिए हानिकारक हो सकते हैं।
प्रकृति के साथ छेड़छाड़ और प्रदूषण: प्रकृति के साथ होने वाली छेड़छाड़ और प्रदूषण भी कौवों की संख्या को कम कर रहे हैं। कौवों के लिए उपयुक्त पर्यावरण नहीं रह गया है।
कूड़े के ढेरों में खाद्य की कमी: जगह-जगह कूड़े के ढेरों में पड़ा खाद्य भी कौवों के लिए कम हो गया है। कूड़े में कम खाद्य होने से कौवों को भूखा रहना पड़ता है।

कौवों की प्रजातियां
भारत में कौवे की कुछ प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें ईस्टर्न जंगल कौआ, अंडमान ट्रीपी, कॉलर ट्रीपी, रेड-बिल्ड ब्लू मैगपाई और ग्रे ट्रीपी शामिल हैं। इन प्रजातियों की औसत लंबाई 40 से 80 सेमी तक हो सकती है।

कौवों का महत्व
कौवों का हमारे जीवन में काफी महत्व है। कौवे हमारे पर्यावरण के लिए बहुत जरूरी हैं। कौवे कूड़ा-करकट खाकर पर्यावरण को साफ रखते हैं। कौवों की संख्या कम होने से कूड़ा-करकट बढ़ता जा रहा है और पर्यावरण दूषित होता जा रहा है।

कौवों का सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व भी है। सुबह घर की मुंडेर पर बैठे कौवों की कांव-कांव सुनकर लोग मेहमानों के आने का संकेत समझ लेते थे और उनके आने का इंतजार करते थे। वहीं, पितृपक्ष में नदी, तालाब के अलावा तर्पण में भी कौवों का काफी महत्व माना जाता है। पितृपक्ष में पितरों को तर्पण के अलावा कौवों को अन्नदान किया जाता है।

निष्कर्ष
कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग से होने वाले प्रदूषण का असर कौवों की संख्या पर पड़ रहा है। कौवों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। इसके कई कारण हैं जैसे कीटनाशकों का बढ़ता प्रयोग, वृक्षों की कटाई, शहरीकरण, मोबाइल टावरों की बढ़ती संख्या, प्रकृति के साथ छेड़छाड़ और प्रदूषण, कूड़े के ढेरों में खाद्य की कमी। कौवों का पर्यावरण और सांस्कृतिक महत्व है। कौवों की संख्या कम होने से पर्यावरण दूषित होता जा रहा है। इस समस्या को हल करने के लिए कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग को कम करना होगा और पर्यावरण को साफ रखना होगा।