संदर्भित काव्य व्यक्त करते हुए राघवेंद्र जी
आसान नहीं होता
हाथ छुड़ा पाना
पर जब रास्ते ही अलग हो
तो साथ छूट ही जाता है।
आप का चाहना न चाहना
मायने नहीं रखता,रास्ते अपनी
राह चलते है ,मुड़ते है और आगे बढ़ जाते है।
हम हर बार की तरह एक याद समेट कर
तह लगाकर अपनी यादों की संदूक में कहीं नीचे दबा देते है।
जब कभी थक कर ज़िंदगी की सांझ होगी
फुरसत से एक एक कर निकाला करेंगे और निहारा करेंगे और धीरे धीरे सामने जलती आग के एक एक हवाले करते जायेंगे।
सब एक एक करके जायेंगे ,और एक दिन कुछ शेष नहीं बचेगा न मैं होंगी न मेरी यादों की संदूकची
सामने जलती आग होगी निशानी कुछ जला था यहां
कितनी यादें कितनी बातें कितने पल कितने लम्हे।
"राघवेंद्र"
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