संघ मे मुसलमानों से घृणा नहीं,तय उन्हें करना है कि वे संघ समझना चाहते हैं या वोट बैंक के स्टॉकिस्ट

आजकल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर दोहरी विचारधारा के आक्रमण हो रहे हैं कुछ लोगों का यह कहना है संघ मुसलमानों का विरोधी है तो कुछ कहते हैं विरोधी नहीं संघ मुसलमानों का हित कभी भी नहीं चाहता .परंतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्थापना काल से लेकर के आज तक मुसलमानों को अपना धुर विरोधी कभी नहीं माना पर मुस्लिम नेता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपना धुर विरोधी जरूर मानते हैं, अभी दिल्ली में श्री मोहन भागवत से भेंट और दशहरा के कार्यक्रम में एक महिला को कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनाया जाना इस बात का संदेश है कि संघ में मुसलमानों का भी सम्मान है संघ में नारी का भी सम्मान है यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता l आजकल आर एस एस को कोसने और नसीहत देने का चलन है,काशी संघ कार्यालय पर 1979 में मुसलमानों को नमाज़ पढ़ने का अवसर संघ ने दिया था ,मैं स्वयं व्यवस्थापकों में एक था,l

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक श्री मोहन भागवत से भेंट करके देश के पांच जाने-माने मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है उसका अर्थ यही है कि संघ की विचारधारा में मुस्लिम नागरिकों के लिए किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है बशर्ते राष्ट्र सर्वोपरि का सिद्धान्त एक समान रूप से प्रत्येक नागरिक का सर्वमान्य सिद्धान्त रहे। संघ प्रमुख ने स्पष्ट किया कि अपने देश भारत के प्रति नागरिकों की निष्ठा पर किसी प्रकार का सन्देह करना अनुचित है क्योंकि भारत संविधान से चलने वाला देश है और इसी के दायरे में रह कर सभी नागरिकों को अपने अधिकार लेने हैं। संविधान से इतर जाने का प्रश्न उठाने वाले लोग राष्ट्रीय एकता के संचारी तत्व की अवहेलना करते हैं। संघ प्रमुख ने पहली बार एक मदरसे का दौरा भी किया वह नई दिल्ली की एक मस्जिद में भी गये। इससे साफ पता चलता है कि श्री भागवत हृदय से हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे के समर्थक हैं। संघ प्रमुख की इस सदाशयता का वर्तमान सामाजिक माहौल में बहुत अधिक महत्व है क्योंकि हिन्दू व मुस्लिम दोनों ही पक्षों की ओर से बीच-बीच में कुछ कर्कश स्वर वाले ऐ से कट्टरपंथी सक्रिय हो जाते हैं जो दोनों समुदायों के बीच में कटुता का वातावरण बनाना चाहते हैं। संघ प्रमुख ने कई वर्ष पहले भी कहा था कि हिन्दू व मुसलमान दो भाई हैं। इतिहास में जो घट चुका है उसका आज के मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं है। पंथ या पूजा पद्धति अलग होने से राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। मगर मुस्लिम समाज का भी यह कर्त्तव्य बनता है कि वह भारतीयता के प्रति सजग हो और इस देश की संस्कृति के प्रति संवेदनशील हो। इसका आशय यही है कि भारत के मुसलमान सबसे पहले भारतीय हों और भारत की धरती का सम्मान सर्वप्रथम हो। देश की सेवा सभी हिन्दू-मुसलमान मिल कर ही करते हैं। इस देश का ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ ही हिन्दू-मुस्लिम एकता का सबसे बड़ा संवाहक है। यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मजहब के आधार पर पाकिस्तान बन जाने के बावजूद हिन्दू-मुस्लिम एकता की मजबूत कड़ी है जिसमें हिन्दुओं के इष्ट देवताओं के शृंगार के सामान से लेकर उनकी पुष्प सजावट का सामान मुस्लिम श्रमजीवी ही मुहैया कराते हैं। संघ प्रमुख ने हिन्दू राष्ट्र के संशय को भी जड़ से समाप्त किया और कहा कि संविधान की सीमा में राष्ट्र की परिकल्पना का सपना एक भारत राष्ट्र के रूप में शक्तिशाली होना चाहिए। यदि हम गौर से देखें तो संघ केवल भारत को मजबूत करने की बात करता है और इसका माध्यम भारतीयता को मानता है। वैदिक धर्म की मान्यता के अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी भी पूजा पद्धति का अनुसरण कर सकता है और राष्ट्र सर्वप्रथम के उद्घोष के साथ समाज के सकल विकास में अपना योगदान दे सकता है। उसका हिन्दू या मुसलमान होना कोई मायने नहीं रखता बल्कि उसका सच्चा इंसान होना मायने रखता है। मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ संवाद करके संघ प्रमुख ने स्पष्ट कर दिया कि भारत कभी भी मजहबी विचारधारा (थियोलोजिकल स्टेट) वाला देश नहीं बन सकता क्योंकि वैदिक धर्म या हिन्दू मान्यता ही इसके विपरीत है। एक अर्थ में उन्होंने यह प्रकट कर दिया कि लोकतन्त्र हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग है। इसके प्रमाण हमें केवल सनातन या वैदिक अथवा हिन्दू दर्शन में ही नहीं मिलते हैं बल्कि इन्हीं से उपजे हुए जैन व बौद्ध दर्शनों में भी मिलते हैं। जैन दर्शन का ‘स्यातवाद’ प्रजातन्त्र के उद्गम सूत्रों में से एक कहा जाता है जिसमें एक ही वस्तु या विषय पर विविध ‘कथनचितों’ के सम्मान करने का विधान है। परन्तु समस्या तब पैदा होती है जब किसी अन्य धर्म की पवित्र कही जाने वाली लिखित पुस्तकों के अनुसार अल्लाह या ईश्वर को मानने वाले लोग केवल अपने ही रास्ते को एकमात्र सही रास्ता बताते हैं। असहिष्णुता का भाव यहीं से पैदा होता है। संघ प्रमुख ने ऐसे गूढ़ विषय पर भी मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ विचार-विमर्श किया। इससे पता चलता है कि बातचीत बहुत खुले हृदय से भारत की एकता को केन्द्र में रख कर हुई। संघ को राष्ट्रवाद में विश्वास रखने वाला सांस्कृतिक संगठन कहा जाता है। यह नागरिकों में चरित्र निर्माण के लिए कृत संकल्प कहा जाता है। इसमे घृणा का भाव जो लोग देखते हैं वे अपने भीतर नहीं झांकते क्योंकि चरित्र निर्माण पर सबसे ज्यादा जोर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी दिया था। श्री भागवत ने महात्मा गांधी को ही एक मात्र राष्ट्रपिता कह कर सन्देश दिया कि संघ गांधी के देश में ही विश्वास रखता है। संघ के दरवाजे मुसलमानों के लिए 1979 के आसपास तब खुल गये थे जब स्व. जयप्रकाश नारायण इसके विशिष्ट सम्मेलन में भाग लेने नागपुर गये थे और उन्होंने आह्वान किया था कि संघ को हिन्दू-मुसलमानों में राष्ट्रीयता के भाव को ‘सम स्तर’ पर लाने के लिए अपने दरवाजे मुस्लिमों के लिए खोलने चाहिएं। अतः आज का संघ बीसवीं सदी का नहीं बल्कि 21वीं सदी का है। तय तो मुसलमानों को करना है वह संघ समझना चाहते हैं या विधर्मियों साथ वोट बैंक के स्टॉकिस्ट

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