जड़ को जीवंत करने वाले कलाकार हैं हिम्मत शाह

in #sampaadkiye2 years ago

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राजेश कुमार व्यास कला समीक्षक
हिम्मत शाह इस दौर के मूर्धन्य कलाकार हैं। मिट्टी, धातु, काष्ठ, प्लास्टर ऑफ पेरिस आदि भांति—भांति के माध्यमों में उन्होंने विरल कलाकृतियां सिरजी हैं। महामारी कोविड के विकट दौर में जब जीवन थम गया था, उन्होंने अनथक नया रचा। पेंसिल, इंक पेन, चारकोल से अपने भीतर की अकुलाहट को स्वर देते उन्होंने तब जो सिरजा, उसे ‘अण्डर द मास्क’ रेखांकनों में जैसे जिया है।

हिम्मत शाह ने कुछ दिन पहले ही नब्बे की वय में प्रवेश किया है। जन्म दिन पर उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक और दिल्ली से क्यूरेटर, कला समीक्षक रुबीना और कुछ चंद लोगों को अपने यहां आमंत्रित किया था। घर पहुंचा तो शहर से दूर सात सौ वर्ग मीटर में अपने नए बन रहे स्कल्पचर स्टूडियो में वे ले गए। नई बन रही इमारत की एक—एक मंजिल पर स्वयं चलकर ले जाते बहुत सारी भावी कला योजनाओं को भी उन्होंने उत्साह से बताया। सुखद लगा जब हिम्मत शाह ने कहा, ‘स्टिल आइ एम यंग।’ हिम्मत शाह उम्र को परे धकेलते अपने मूर्तिशिल्प में सदा ही जड़ को जीवंत करते रहे हैं। नब्बे के दशक में कभी मिट्टी में सूक्ष्म शिल्प की एक शृंखला उन्होंने प्रारम्भ की थी। इस अधूरी कला शृंखला को अब पूर्ण कर रहे हैं। एक शहर अपनी प्राचीन सभ्यता, शिल्प और स्थापत्य में कैसे आधुनिकता को जीता है, इसे हिम्मत शाह ने मिट्टी में सिरजी अपनी सूक्ष्म कलाकृतियों में जीवंत किया है। नव्य मूर्तिशिल्प शृंखला को उन्होंने ‘एंटायर द सिटी’ शीर्षक दिया है। याद है, कुछ दिन पहले जब उनके घर पर पहुंचा तो मिट्टी में सिरजे जीवन के अपने ये मूर्तिशिल्प उन्होंने चाव से दिखाए थे और बताया था कि अलग-अलग धातु में कास्ट कर इन्हें जल्द दुनिया के किसी बड़े शहर में प्रदर्शित किया जाएगा। अपने कलाकर्म के बारे में वे कहते हैं, 'मैंने सबको छोड़ दिया। अपने को ढूंढने के लिए सबको छोड़ना पड़ेगा।'

हिम्मत शाह के पास बहुत सारी योजनाएं हैं। वे एक आर्ट कॉलेज खोलना चाहते हैं, जिसमें बच्चों को याद करना नहीं भुलाना सिखाया जाए। जहां सब कुछ पुराना छोड़कर नया सिरजने के लिए कलाकार तैयार हों। अहमदाबाद के जेवियर कॉलेज के उनके रिलीफ कार्य, दिल्ली में गढ़ी में किए मिट्टी के अद्भुत मूर्ति शिल्प, बर्न पेपर, अब्राहम अलका जी की खरीदी राजस्थान को जीवंत करती उनकी टेराकोटा शृंखला 'होमेज टू राजस्थान', सिल्वर पेंटिंग आदि के बारे में उनसे ढेरों बातें होती हैं, तो वक्त जैसे पंख लगा उड़ जाता है। वे कहते हैं, ‘मेरी कलाकृतियां बिकती हैं, अच्छा लगता है। मुझे और पैसा चाहिए। इसलिए नहीं कि उससे मैं सुख—सुविधाएं विकसित करूं। इसलिए कि अब भी अपनी सृजनात्मकता के लिए मुझे बहुत कुछ खरीदना है। किताबें, कला सामग्री। अभी बहुत सारा घूमना है। उनके इस कहे में कला के उनके विरल अनुभव—भव को गहरे से समझा जा सकता है।

हिम्मत शाह ने जो किया वह हमारे यहां न तो चित्रकला में हुआ है और न ही मूर्तिकला में। बंधी-बंधी लीक से परे। किसी शैली विशेष से मुक्त। वे नब्बे वर्ष के हो गए हैं, परन्तु उम्र के पड़ाव पर कहीं ठहरे नहीं हैं। वे कहते भी तो हैं, कोई बिन्दु, कोई क्षण यदि ठहर गया तो फिर शेष रहेगा ही क्या! अंत है फिर तो।