अशोक स्तंभ के शेर

in #rajnitik2 years ago

जो लोग आज शेरों की स्वाभाविक आक्रामकता के पक्ष में तर्क दे रहें हैं, उन्हें वास्तव में न शेरों की आक्रामकता से लगाव है और न ही शेरों की शांत मुखमुद्रा से कोई वितृष्णा। दरअसल वे सिर्फ़ अपने संगठन के बचाव में हैं। उन्हें अपने राजनीतिक नेतृत्व के हर कदम चाहे वह अनायास हुआ हो या सायास, का बचाव करना है, उनके हर निर्णय की पैरोकारी करनी है। यही बात असंसदीय घोषित हुए नए शब्दों की शृंखला पर भी कही जा सकती है। पैरोकार लोग इसको भी जस्टीफाई करेंगे। क्या विनीत और शांत भाव में दिखना कायरता की निशानी है? अगर नहीं तो फिर अशोक स्तम्भ की अनुकृति में बदलाव का औचित्य क्या? अनुकृति में तो वैसे भी छेड़छाड़ ठीक नहीं।

शेरों की आक्रामकता स्वाभाविक है, पर इतिहास में व्यक्ति/वस्तु के उलट विरोधी गुण के साथ चित्रित करने की एक लंबी परम्परा रही है। यह प्रतीकात्मकता है। भावमुद्रा प्रतीक को एक नया आयाम, एक नया अर्थबोध देती है और प्रतीक हमारे सैद्धांतिक प्रतिबद्धताओं को गहराई से व्यंजित करते हैं। क्या हम यह कहना चाहते हैं कि सम्राट अशोक को शेरों की स्वाभाविक मुखमुद्रा का ज्ञान नहीं था या फिर तब कला के मानक इतने संपुष्ट न थे। भाई प्रतीकात्मकता भी कोई चीज होती है।

हमारे पौराणिक चित्रों में साधु/सन्यासियों के पास बैठे हुए नतभाव में हिंसक पशुओं का चित्रण कोई अनजाने में या अज्ञानतावश तो नहीं ही हुआ होगा। ऐसे चित्र भाव दृष्टि से अर्थहीन होंगे, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। ऐसे तमाम चित्र मिल जाएंगे। ये चित्र एक नई भावदृष्टि के प्रतीक हैं। उनके चित्रण में एक नया अर्थविस्तार छुपा है। अब जैसे कि कपोत शांति का प्रतीक है, तो क्या हम उसकी प्रतीकात्मकता में उसके स्वाभाविक गुणों को लेकर कोई वितंडावाद खड़ा करेंगे।

अशोक स्तम्भ की अनुकृति को नवरूप देने का कोई मतलब नहीं है। अगर त्रुटिवश हुआ है तो उसे साफ मन से स्वीकार करने में क्या दिक्कत है। गलती किसी से भी हो सकती है।

गलती या दुर्भावना को सैद्धांतिक जामा पहनाकर उसके तार्किक आधार को पुष्ट करने की कवायद व्यर्थ ही साबित होगी। तमाम तर्क दिए जा रहें हैं, मसलन अब भारत अपने हितों की रक्षा के लिए आक्रामक है। अब वह दबा-कुचला भारत नहीं है, वगैरह-वगैरह। कहने-सुनने में अच्छा लगता है यह सब, पर हकीकत क्या है? हमें बताया जाए कि हम किन मुद्दों पर आक्रामक हुए हैं।

 क्या संसद में  विरोध के तीखे स्वर न उठाएं जायँ या कोई हमारी असफलताओं पर प्रश्न न उठा सके, इसलिए प्रश्नकाल को खत्म किया जाना ही आक्रामकता है?

क्या दो साल तक किसान आंदोलन को लगातार नजरअंदाज करने और उसके आंदोलनकारियों को बदनाम करने के बाद आसन्न चुनावों में वोटों को हासिल करने की गरज से एकाएक बैकफुट पर आकर समर्पण कर देना आक्रामकता है? 

क्या चीन की विस्तारवादी नीतियों पर चुप्पी साध लेना आक्रामकता है?

क्या संसद में विरोधियों के आक्रामक तेवरों से बचने के लिए शब्दों की एक लंबी सूची को असंसदीय घोषित कर देना आक्रामकता है? या फिर अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में डॉलर के मुकाबले रुपये का निरंतर गिरते जाना भारत की आक्रामक अर्थव्यवस्था का सूचक है? क्या विज्ञापन में दूसरे देशों के पुलों को अपना बताकर अपनी उपलब्धियों का झूठा प्रचार करना आक्रामक प्रगतिशीलता का लक्षण है?

 कमजोर अर्थव्यवस्था के चलते स्थायी नौकरियों को संविदा में तब्दील करने की कोशिशें आक्रामकता की नहीं आपकी लाचारी का विज्ञापन है। क्योंकि पेंशन काटने के बाद पूरा वेतन दे पाना भी अब सामर्थ्य में नहीं। आत्मविज्ञापन से सच को बदला नहीं जा सकता, यह समझने की जरूरत है।

इसलिए सबसे अच्छा तरीका है कि सही को सही कहा जाय। लीपापोती आपको सही नहीं ठहरा सकती।


 - संजीव शुक्ल