महंगाई
कोई कुछ भी कहे पर मंहगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे हमारे सीने को चौड़ा कर ही जाते हैं, विशेषकर उन मामलों में जब वह हमारे मरने को नहीं, बल्कि जिंदा रहने को ऐतिहासिक बना जाते हैं। जिंदा रह जाना भी कोई कम उपलब्धि नहीं है आज के दौर में। प्रसंशक गण इस बात को समझते हैं, इसीलिए वह मंहगाई जैसी तुच्छ चीजों का रोना कभी नहीं रोते। भक्तगण इन भौतिक तापों से परे हैं। सकारात्मकता उनकी विवशता नहीं बल्कि उनका खुद का चुनाव है। रही बात उनकी औलादों की, तो उन्हें डंडे और झंडे के साथ सभाओं में नारेबाजी का दिहाड़ी-काम तो मिलता ही रहेगा!
- संजीव शुक्ल