नमामि गंगे और अडानी

in #rajnitik2 years ago

नमामि गंगे......


गंगा के प्रदूषण को साफ करने का ठेका भी अडानी को ही मिला था। प्रदूषण साफ करने वाला सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट अडानी जी का है। अच्छा लगा यह प्रमोट करने का तरीका। 

हो सकता है इस खबर को पढ़कर नकारवादी इस खबर पर ताज्जुब करें। और तो और लोग आश्चर्यजनक तरीके से इस बात पर भी आश्चर्यचकित हो सकते हैं कि भारत में बैंकों के बड़े-बड़े कर्जदार दुनिया के सबसे बड़े अमीरों में शुमार हैं। वे सोचते होंगे यह कैसे संभव है! पर है! 

वैसे दुनिया के लिए तो यह भी एक अजूबा हो सकता है कि बैंकों के बड़े-बड़े कर्जदार यहाँ बड़ी-बड़ी सरकारी संपत्तियों की धड़ल्ले से खरीददारी कर रहे हैं। पर हम सकारात्मकता के धनी भारतीय इतनी जल्दी न आश्चर्यचकित होते हैं और न इतनी जल्दी किसी से प्रभावित है। हम लोगों को आश्चर्यचकित करते हैं, होते नहीं। यही है हमारी पारंपरिक नीति जो अद्भुत सी दिखती हैं!


 उदाहरण के तौर पर गंगा को प्रदूषण मुक्त करने हेतु दिए गए ठेके की शर्तें अद्भुत हैं।  सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के कांट्रैक्ट की शर्तों को देखकर आप सहज ही इनकी गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की प्रतिबद्धता के कायल हो जाएंगे!   

 आपको बताते चलें कि इन शर्तों के खुलासे का गवाह बना इलाहाबाद हाईकोर्ट। कांट्रैक्ट में यह प्रावधान किया गयाथा कि अगर प्लांट में क्षमता से अधिक गंदा पानी आया तो शोधित करने की जवाबदेही प्लांट की नहीं होगी। यह नमामि गंगे योजना के प्रति प्रतिबद्धता का सच्चा उदाहरण है। सच्चे अर्थों में 'नमामि गंगे' का अर्थ बहती गंगा में हाथ धोना है।

अब यह न कहिएगा कि यह परिवारवाद है। यह तो सिर्फ़ अपनो के द्वारा अपनों को उपकृत करने का एक पवित्र भाव मात्र है। इसे अन्यथा न लिया जाय। हालांकि अन्यथा लिया गया और न्यायालय द्वारा लिया गया।

इलाहाबाद हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ के मुख्य न्यायाधीश राजेश बिंदल, न्यायाधीश एम के गुप्ता तथा न्यायमूर्ति अजित कुमार ने कहा कि "जब आपने कांट्रैक्ट ही ऐसा किया है तो ट्रीटमेंट करने की जरूरत क्या है?" 

अरे भाई जरूरत थी तभी ऐसा किया गया।

दरअसल न्यायालय सिर्फ़ न्याय के स्थापित मानकों के आलोक में ही वाद को देखने का आदी है। वह कार्य के पीछे की मूलभावना को नहीं देखता। भाई जब अपनों के द्वारा अपनों को ठेका दिया जाएगा तो क्या सम्बन्धों के लिए इतना भी नहीं बनता कि थोड़ा सा एक दूसरे का ध्यान रख लिया जाय। पुरानी परम्पराएँ बदलनी चाहिए। शर्तों में थोपने  का भाव खत्म होना चाहिए। अब शर्तों को भी लिहाजपसंद होना चाहिए। आखिर शर्तें बनाते भी तो हमी हैं।

अभी हम भारतीयों में इतना आँख का पानी नहीं मरा है कि गंगा के पानी के चक्कर में रिश्तों का बिगाड़ कर लें। ऐसा क्या कि गंगा को साफ करने के चक्कर में सम्बन्ध ही जड़ से साफ हो जाएं।

- संजीव शुक्ल