सेंसेशनल जंगल"और पर्यावरण को बचाने पर जोर

in #public2 years ago

मंडला आदिवासियों के बीच रहकर उनके जनजीवन को चित्रित करने वाले प्रसिद्ध पेंटर आशीष कछवाहा का कहना है कि उनके इलाके में जंगल में रहने वाले आदिवासियों को कोरोना नहीं हुआ क्योंकि प्रकृति के बीच रहने से उनकी प्रतिरोधक क्षमता अधिक थी। उन्होंने कहा कि प्रकृति के साथ मनुष्य का संबंध टूट जाने और पर्यावरण पर ध्यान न देने के कारण समाज में आज संवेदनशीलता का अभाव हो गया है और हम विकास के गलत रास्ते पर जा रहे हैं। मध्यप्रदेश के मंडला के चित्रकार आशीष कछवाहा ने कल शाम राजधानी के त्रिवेणी कला संगम में अपनी एकल चित्र प्रदर्शनी के उद्घाटन पर यह बात कही। हिंदी के प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी, जाने माने कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल समकालीन कला के पूर्व संपादक ज्योतिष जोशी और प्रसिद्ध चित्रकार अखिलेश ने इस प्रदर्शनी का उद्घाटन किया।प्रदर्शनी के शुभारम्भ पर अपने लेख पर स्थापित कवि और वार्ता के पत्रकार रह चुके विमल कुमार लिखते है कि पर मात्र सातवीं कक्षा तक पढ़ें पेंटर श्री कछवाहा कान्हा नेशनल पार्क के ठीक सामने अपने स्टूडियों में ,"बैगा" जनजाति के जीवन पर चित्र बनाते हैं और अब तक एक हज़ार चित्र बना चुके हैं। देश के पूर्व मुख्य न्यायधीश शरद बोबडे और छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनसुइया उईके उनके स्टूडियो में आकर उनके चित्रों का अवलोकन कर चुकी हैं। बचपन में अपने पिता को खोने के कारण पढ़ाई पूरी न कर पानेवालेआशीष ने अपनी आजीविका के लिए चित्रकला का रास्ता बनाया और आज उनकी पेंटिंग 50 हज़ार से एक एक लाख में बिक जाती हैऔर कान्हा नेशनल पार्क घूमनेवाले पर्यटक उनकी पैंटिंग खरीदते हैं तब उनका जीवन चलता है। वह कहते हैं-"मुझे पद्मविभूषण से सम्मानित विश्वप्रसिद्ध चित्रकार रज़ा से काफी प्रेरणा मिली जो मांडला के थे। मैँ उनसे मिल नहीं पाया इसका अफसोस मेरे मन मे हमेशा रहेगा उनके अंतिम दर्शन मैंने जरूर किये हैं। मैंने तीसरी कक्षा में नेहरू जी पर चित्र बनाया था उसे स्कूल में पुरस्कार मिला तब चित्र बनाने का सिलसिला शुरू हुआ।"बाघ के बाद पर्यावरण और प्रकृति पर है आशीष का ध्यान -वे कहते हैं कि उन्हें जंगल में रहकर आदिवासियों के बीच पेंटिंग करना अच्छा लगता है। वह पहले बाघ की पेंटिंग बनाकर बाघ बचाओ का संदेश देने का काम कर रहे थे पर अब उनका ध्यान पर्यावरण और प्रकृति पर है। उन्होंने अपनी पेंटिंग में चटख रंगों का इस्तेमाल किया है। उन्होंने बताया कि कोलकत्ता पुणे और नागपुर में उनकी एकल प्रदर्शनी हो चुकी है और देश के कई शहरों में ग्रुप प्रदर्शनी लग चुकी है।उन्होंने कहा कि इस देश में आदिवासी कलाकार बहुत हैं और उनकी कला के प्रचार प्रसार की बेहद आवश्यकता है। बावजूद इसके सरकार के प्रोत्साहन से गोंड कला का विकास हुआ है और दो कलाकारों को पद्मश्री भी मिल चुका है। उनके इलाके में करींब 400 गोंड कलाकार हैं जिनमे डेढ़ सौ महिला कलाकार हैं। उन्होंने कहा आदिवासी कलाकारों ने अपनी कला में लोकसंस्कृति प्रकृति और पर्यावरण पर जोर दिया है। प्रकृति के बचने से ही लोक संस्कृति बचेगी। प्रदर्शनी के आयोजक रज़ा फॉउंडेशन के प्रबन्ध न्यासी अशोक वाजपेयी ने बताया कि युवा चित्रकारों और गोंड चित्रकारों के उत्साह वर्धन के लिए रज़ा फाउंडेशन ने कई चित्र प्रदर्शनियां लगाईं।पिछले दिनों25 गोंड कलाकारों की और 100 युवा चित्रकारों की प्रदर्शनी लगाई गई थी।मांडला में रज़ा साहब की पुण्यतिथि पर एक प्रदर्शनी लगाई गई।प्रकृति और जीवन रहस्य को दृश्य करती कला प्रदर्शनी -
कला पत्रिका के पूर्व संपादक और जाने माने कला आलोचक (आर्ट क्रिटिक) डॉ. ज्योतिष जोशी प्रदर्शनी के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते है कि कल रज़ा फाउंडेशन, दिल्ली द्वारा आयोजित कला प्रदर्शनी में जाना हुआ जिसका आरम्भ त्रिवेणी कला दीर्घा, नई दिल्ली में हुआ। रज़ा फाउंडेशन की युवा कलाकारों को प्रोत्साहित करने की योजना के अंतर्गत नवीं प्रस्तुति के रूप में इस बार आशीष कच्छवाहा के चित्रों की प्रदर्शनी बेहद खास और दिलचस्प लगी। मध्य प्रदेश के मंडला से आए आशीष कछवाहा क्षेत्र में स्थित कान्हा के विस्तृत अरण्य में बैगा और बाघ जनजातियों के बीच रहकर काम करते हैं और उनके नृत्य करने, गाने, चित्र बनाने से लेकर अनूठे जीवन व्यापार को नजदीक से देखते हैं। उनके जीवन का लक्ष्य उनके बीच रहकर काम करना और उन्हें अपनी सेवाएं देनी हैं। वे कान्हा के अरण्य को उसकी अप्रत्याशित गतिविधियों के साथ देखते हैं जिन्हें हम नागर लोग नहीं जान सकते है। पत्तों का खड़कना, वृक्षों का नृत्य, वनस्पतियों का वृन्द गान और हवा के झोंके से आती सुगन्ध के साथ प्रकृति के नायाब अनुभवों को महसूस करते आशीष बैगा और बाघ जनजातियों की उनसे अनन्यता अनुभूत करते हैं और उससे उनका अपना कला संसार निर्मित होता है।
आशीष पढ़े लिखे कम हैं। कला की कोई अकादमिक शिक्षा भी उन्होंने नहीं ली है। वे आत्म प्रशिक्षित कलाकार हैं जिनके लिए कला की अपनी दुनिया जनजातियों और कान्हा के अरण्य से एकमेव है। बदले हुए समय में भी समकालीनता के नाम पर वे बीसवीं सदी के आरम्भ में शुरू हुए दादावादी ' प्रत्ययवाद' (Conceptualism) से सर्वथा दूर हैं जो आज एक चलन बन गया है। मालूम हो कि इसे मार्सेल द्यूशां ने शुरू किया था। आशीष की चित्र पद्धति इस अर्थ में बेहद नायाब है कि इसमें वे कैनवस को बीच से विभिन्न आकारों में काट देते हैं और उसे मनचाहा रूप देकर उसमें कहीं रंग भरते हैं तो कहीं रंगीन चिप्पियों को लगाते हैं। इन कामों को ध्यान से देखें तो कहीं हरे पत्ते हैं, कहीं विखण्डित आकारों में कैनवस के बीच संचारित पवन है, तो कहीं सूर्योदय की आभा है। सूर्योदय की आभा तुलिकाओं के संयोजन में बनी है। इसमें वृत्त भी है जिसका केन्द्रक हमें अपने आत्म को देखने को प्रेरित करता है। इनमें कहीं कान्हा के अरण्य के वे सुखद अनुभव हैं जिसमें प्रकृति का गान है, वनस्पतियों का आपसी संवाद है और जनजातियों का उनसे अपनापन है। एक प्रशिक्षित चित्रकार की तरह अपने आत्म से सम्वाद करते हुए आशीष ने इन चित्रों में एक ऐसी दुनिया सिरजी है जो हमारे आत्मबोध को जगाती प्रतीत होती है, क्योंकि हमारे पंचभूत का बहुलांश इन्हीं अरण्यों में है। कह सकते हैं कि अमूर्त और मूर्त के संधिस्थल पर निर्मित यह प्रदर्शनी यह भी संकेतित करती है कि मूर्त का अमूर्त होना और अमूर्त का मूर्त होना हमारी उन मनोदशाओं का प्राकट्य है जिसमें हम अपने निज के संसार के साथ शामिल होते हैं। आरम्भ में प्रयाग शुक्ल ने ठीक ही आशीष के प्रयोगधर्मी सृजन को सराहा और श्री अखिलेश ने दर्शकों को इन चित्रों की पृष्ठभूमि से परिचित कराया। मालूम हो कि यह प्रदर्शनी चित्रकार श्री अखिलेश के ही संयोजन में तैयार हुई है। यह उन नए कलाकारों को तो अवश्य ही देखना चाहिए जो कला को प्रकृतिसत्य और जीवन-रहस्य के सातत्य में जानने के इच्छुक हैं।IMG-20220822-WA0031.jpg