दास्तान-गो : हिन्दी सिनेमा में ’ग़ज़ल का शाहज़ादा’, मदन मोहन कोहली!
मदन मोहन कहा करते थे, ‘धुनें बनाते वक़्त मेरा ज़ेहन सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही बात का ख़्याल रखता है कि वह धुन सुरीली है या नहीं. क्योंकि किसी भी धुन, किसी भी नग़्मे की रूह तो सुरों में, सुरीलेपन में ही समाई होती है.’
किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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