अलीगढ़ हुआ पानी से थाल थाला थाल II
नब्बे के दशक में रेनी डे नामक चिड़िया हुआ करती थी, उस दौर में अभिभावक बारिश को बहुत हल्के में लिया करते थे और स्कूल के अनुशाशन की उन्हें ज़्यादा चिंता होती थी की बारिश का बहना करके बच्चे को स्कूल नहीं भेजा तो पेरेंट्स टीचर मीटिंग में टीचर बहुत नाराज़ होंगी और डायरी में शिकायत लिख लिख कर जीना दूभर कर देंगी और पब्लिक में बेज़्ज़ती होगी सो अलग।
बरसाती में कोई मिल गया के एलीयन जादू के जैसे मैं हीरो बन के स्कूल के लिए निकलता था, टेम्पो वाले भैया स्कूल के पास चौराहे पर रोकते थे और वहाँ से सौ मीटर तक पैदल चलते हुए मैं कीचड़ में छपाके मारता हुआ शान से चलता था.
गीले हम, गीले सब और गीला क्लासरूम … टीचर सब सूखे मिलते थे, बच्चे कम आते थे तो क्लास में ज़्यादा तफ़री होती थी... पिरीयड सारे कैन्सल होते थे या होते भी थे तो पढ़ाई नहीं होती थी।
इंटर्वल और छुट्टी तक हम क्रिकेट, फ़ुट्बॉल सब खेल चुके होते... पसीना, मिट्टी और पानी सब चेहरे पर होता था और शिकन तक नहीं होती थी, स्कूल के मैदान में भरे कीचड़ में लकड़ी डाल कर केंचुए उठा उठा के अपने मित्रों के ऊपर फेंकने का प्रयास करते थे, प्रिन्सिपल देखते ही दौड़ा लेता था, शायद उनका भी मन करता होगा खेलने का ।
अब न वो बारिश रही, न वो स्कूल, न वो मैदान और केंचुए भी शर्म के मारे सब छुप गए हैं। रह गयी हैं वो थोड़ी सी धुंधली यादें… जब बारिश होती है तो मिट्टी की ख़ुशबू के साथ उन यादों को सूंघ लेता हूँ … मन हल्का हो जाता है ।
Zila Aligarh
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