परोपकार से मिलते हैं भगवान श्रीराम

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  • माता अनुसुइया ने सीता जी को पतिव्रत धर्म एवं नारी धर्म की महिमा बताई
  • परोपकार से मिलते हैं भगवान श्रीराम - कनिष्ठ जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी आत्मानंद सरस्वती महाराज

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निवास. निवास के ग्राम बिझौली में श्रीराम कथा का आठवां दिन कथा प्रवक्ता कनिष्ठ जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी आत्मानंद सरस्वती महाराज ने हजारों श्रोताओं को संबोधित करते हुए भगवान श्रीराम के वनवास की कथा को आगे बढ़ाते हुए चित्रकूट की महिमा का वर्णन किया। कहा कि कोल, किरात, भील सभी आए। भगवान की अगवानी करने के लिए संपूर्ण संतों ने समाचार पाया। चित्रकूट के कामदगिरि के समीप आकर सभी ने भगवान की अगवानी की। भगवान ने सभी संतो को दंडवत प्रणाम किया।

संतों ने कहा प्रभु हम लोग तो आपको प्रणाम करने आए थे। भगवान ने कहा, नहीं संत मुझसे भी बड़े होते हैं। अंतत: भगवान अत्रि आश्रम के लिए प्रस्थान किया। रास्ते पर महात्मा वाल्मीकि का दर्शन हुआ। भगवान वाल्मीकि से मार्ग पूछते हुए कहते हैं, प्रभु हम वनवास के इतने समय तक कहां रहे। वाल्मीकि ने कहा चित्रकूट में आप रुके। चित्रकूट में सब प्रकार से आपको सुख मिलेगा। भगवान ने वाल्मीकि के कहने पर चित्रकूट में रहने का निर्णय लिया। अंतत: माता अनुसुइया जी के आश्रम पर भगवान श्रीराम जी पहुंचे। वहां भगवती सीता जी ने बारंबार माता अनुसुइया जी को प्रणाम किया। माता अनुसुइया जी ने सीता जी को पतिव्रत धर्म एवं नारी धर्म की महिमा को समझाया।

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रामद्रोही को कहीं नहीं मिलता शरण:

स्वामी आत्मानंद सरस्वती महाराज ने कहा कि एक दिन भगवान फूलों से भगवती सीता को सजा रहे थे। उसी समय सीता के सौंदर्य को देखकर देवराज इंद्र की पत्नी सची ने ईष्र्या बस अपने बेटे जयंत से कहा कि, जो पृथ्वी लोक में चित्रकूट में अद्वितीय सुंदर एक नई फटिक शिला के ऊपर बैठी हुई है। उसका सौंदर्य मिटा दो इंद्र के बेटे जयंत ने बायस का भेष बनाया। जाकर के किशोरी जी के चरणों में चोंच का प्रहार कर दिया। भगवान ने एक छोटा सा त्रण फेंका और वह त्रन पीछे-पीछे जयंत के चला गया। जयंत ब्रह्मा के यहां गए तो ब्रह्मा शरण नहीं दी। इंद्र के पास गए तो इंद्र ने भी शरण नहीं दी। शंकर के पास गए तो शंकर ने भी शरण नहीं दी। क्योंकि रामद्रोही को दुनिया में कोई शरण नहीं दे सकता है। अत: भगवान ने जब अपमान देखा तो चित्रकूट का ही पर त्याग कर दिया। उसके बाद भगवान श्री हरी राम दंडक वन की ओर प्रस्थान किए। रास्ते पर श्री सुतीक्ष्ण जी का उद्धार किया। सुतीक्ष्ण आश्रम से बढ़ते हुए दंडक वन पहुंचे। वहां पर रावण की बहन कपट और क्रूरता से भरी हुई, सूर्पनखा का आना हुआ और सूर्पनखा ने भगवान श्रीराम के सम्मुख खड़े होकर श्री किशोरी जी का अपमान करना चाहा, कि मुझसे सुंदर तुम्हारी यह पत्नी नहीं है। अत: भगवान तुम मुझसे विवाह करो। भगवान ने कहा मैं एक नारीव्रत संकल्प लिए हूं। मैं रघुवंश का मर्यादा पुरुषोत्तम हूं। मेरे भाई लक्ष्मण जी कुंवारे हैं। सूर्पनखा बार-बार लक्ष्मण जी से कहती है। मेरे साथ विवाह करो। लक्ष्मण जी ने भगवान की आज्ञा पाकर सूर्पनखा को नाक कान विहीन कर दिया और वह अपने भाई खरदूषण के पास गई। खर दूषण ने भगवान राम से युद्ध किया युद्ध में खर दूषण मारे गए। सूर्पणखा ने रावण के पास जाकर यह वृत्तांत सुनाया। रावण ने उसी समय सीता जी के हरण का निर्णय किया।

आगे ने जटायु प्रसंग को बड़े मार्मिक ढंग से समझाते हुए कहा कि जिस समय माता सीता का हरण हो रहा था। उस समय कोई भी रक्षा करने के लिए नहीं आया। तब गीध राज जटायु ने अपने प्राणों की आहुति देकर मां सीता की रक्षा की। परंतु रावण द्वारा उनके पर काट दिए। परमात्मा राम ने जंगल में पहुंचकर जटायु को गोद में उठाया और अपने पिता की तरह सम्मान देकर अपने हाथों से अंतिम संस्कार किया एवं गीध राज जटायु को भगवान श्रीराम जी ने बैकुंठ दिया, अपना स्वरूप भी दिया, अपना लोक भी दिया और कहा जो कुछ मेरे पास है वह तुम्हें देने के लिए कम है। इसलिए ही पिता तुल्य जटायु ,मैं सदैव आपका ऋणी हूं। तुमसे कभी उऋण नहीं हो सकता हूं। तुमने सीता का समाचार मुझे सुनाया है। इतना कहकर जटायु का अंतिम संस्कार भगवान ने किया। तदोपरांत वहां से अंतिम संस्कार करके शबरी आश्रम के लिए प्रस्थान किया। आगे भजनों के साथ आरती की गई। जिसमें श्रद्धालु झूम-झूम कर मस्ती में डूबे रहे। कथा को सुनने बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंच रहे हैं।


  • रिपोर्टर रोहित प्रशांत चौकसे निवास
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