आज सुबह की लम्बी सैर के बारे में सोचा था पर उठते हुए काफ़ी देर हो गई।
आज सुबह की लम्बी सैर के बारे में सोचा था पर उठते हुए काफ़ी देर हो गई। नई शुरुआत की हर उम्मीद इसी तरह देर से उठती है। ग़नीमत है कि उठ जाए,नही तो कई दफ़ा वह दफ़न ही हो जाती है। बिस्तर पर ही रहते हुए देखा,उजाला घिर आया था। शहरों की सुबह -7 बजे भी बड़ी मनहूस सी होती है। चुभने वाली धूप से तपते फ़्लोर के बीच न एसी काम करता है और न ही दिल। लगता है,भीतर जितना ग़ुस्सा है, धूप के भीतर तपिश बनकर वही दहक रहा है। मुझे याद है , अगर मुझे दफ़्तर न जाना हो, तो कितना समय मैं यूँ ही इन बिस्तरों पर बिता देने का आदी रहा हूँ। कभी कभी लगता है जब आदमी अपने आख़िरी दिनों में होता होगा,बूढ़े दिनों में, वह हर सुबह कैसे उठता होगा। शायद उसे नींद न आती हो,पर वो पड़ा पड़ा क्या सोचता होगा। भीतर का प्यार क्या सूरज के सुबह की तपिश से मर नही जाता होगा और जिया हुआ जीवन क्या उसे खा जाने के लिए नही दौड़ आता होगा ।
आशु
एक रुका हुआ उपन्यास...