तीन मई विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस विशेष

in #lalitpur2 years ago

तीन मई विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस विशेष
अंतत: अनौचित्य के बादल सत्य के सुर्य को नहीं ढक सकते हैं, स्वतंत्र प्रेस लोकतंत्र की प्राणवायु है

1651589894374_P4.jpgललितपुर। परतंत्र भारत में सिर्फ प्रिंट मीडिया के नाम पर अखबारों का ही चलन था। आज इन्टरनेट की संचार क्रांति के विस्फोट से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जुड़ जाने से सामान्य पत्रकारिता व्यापक अर्थ में सशक्त मीडिया कहलाने लगी है। शुरुआत से ही पत्रकारिता के अग्निपथ पर चलना बड़ा कठिन रहा है। सन् 1907 में उर्दू साप्ताहिक स्वराज्य चालू हुआ और 1910 तक आते आते बंद हो गया। क्योंकि इस अखबार के 8 सम्पादकों को कुल मिलाकर 125 वर्षों की सजा हुई। अखबार बंद होने से पूर्व सम्पादक के विज्ञापनों की शर्त थी दो सूखी रोटियाँ और एक गिलास सादा पानी। सम्पादकीय लेख पर 10 वर्ष की सजा भी मिलेगी। तब पत्रकारिता का लक्ष्य जनता को अन्याय उत्पीडऩ से छुटकारा दिलाकर देश को जल्दी से जल्दी आजाद कराने का था। परन्तु आज 24 घंटे चलने वाले खबरिया चैनलों तथा ओद्योगिक उत्पादों के विज्ञापनों से प्राप्त भारी टीआरपी एवं दैनिक समाचार पत्रों की जन जन तक पहुँच होने के कारण मीडिया दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से शक्तिशाली होता जा रहा है। वर्तमान कोविड 19 की विश्वव्यापी महामारी का जैसे जैसे प्रकोप घट बढ़ रहा है उसी गति से विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं राष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठनों के द्वारा वायरस की रोकथाम के लिए चिकित्सकों और वैज्ञानिकों के उपचार के निष्कर्ष जन जन तक पहुंच रहे हैं। बार-बार हाथ धोने, एक दूसरे से 2 गज का फासला रखने जैसी हिदायतें जनता के कंठ में रच-बस गई हैं। जागरूक और लामबंद जनशक्ति सचेत मीडिया के कारण ग्रेनाईट की चट्टान की तरह अदृश्य वायरस के विरुद्ध तन कर खड़ी हो गई है। तथा स्टीमर की चाल से गन्तव्य तक पहुंचने की ओर अग्रसर है। ऐसे विस्मयकारी परिणाम उपस्थित करने के पीछे मीडिया तंत्र के कलम के योद्धाओं के जबरदस्त योगदान को जनता सदैव याद रखेगी। वस्तुत: हमारी आँखों के सामने घटित हो रहे घटनाक्रम की, अखबार एक ऐसी इतिहास शीट है, जो जीवित व्यक्तियों की हंसी-खुशी और रंजोगम के आँसुओं, पसीने और खून से जल्दी में, रोज सवेरे और देर रात तक, कलम के योद्धाओं द्वारा, बिना एक सेकेण्ड का समय गंवाये लिखी जाती है। होली-दिवाली की छुट्टी की अनुपस्थिति में भी पाठक सिहर उठते हैं। संसार में सबसे आसान काम है, बुरे को अच्छा कहना और अच्छे को बुरा कहना। परंतु सच को सच कहना और झूठ को झूठ कहना, लोहे के चने चबाना है। क्योंकि सशक्त स्वार्थी सिस्टम गोली चला करके शहीद भी कर सकता है परंतु याद रहे अनौचित्य के बादल अन्तत: सत्य के सूर्य को नहीं ढक सकते। भले ही ध्येय के प्रति प्रतिबद्धता का अभाव, प्रतिभा को अस्वीकार करने की योग्यता, ईमानदारी के प्रति उदासीनता का भाव सोचें, आखिर कब तक हमारी मानवोचित महिमा और गरिमा को चुनौती देते रहेंगे? कदापि नहीं। जनता का सुख-दुख पूरे वेग के साथ संयुक्त मीडिया में झंकृत होता ही रहना चाहिए।