मां की ममता की महिमा रसोई से लेकर सर्वत्र पुदीने की तरह महक रही है: प्रो.शर्मा

in #lalitpur2 years ago

विश्व मातृ दिवस विशेष
मां की ममता की महिमा रसोई से लेकर सर्वत्र पुदीने की तरह महक रही है: प्रो.शर्मा
1651941721169_P4.JPGललितपुर।
विश्व मातृ दिवस के अवसर पर आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो. भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद के बलिदान के बाद आजाद भारत में उनका मूल परिवार उजड़ गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के जमाने में महान साहित्यकार राज्यसभा सदस्य पं बनारसी दास चतुर्वेदी ने जब इस प्रकरण की जानकारी उन्हें दी तो नेहरू जी बड़े भावुक हो उठे और उन्होंने चतुर्वेदी जी से पूछा कि माता जी की क्या इच्छा है, तो उन्होंने कहा कि वे झांसी में अपने बेटे के प्रिय साथी डॉ भगवानदास माहौर के घर को ही अपना घर बनाना चाहती हैं और उन्हीं के साथ चार धाम की तीर्थयात्रा भी। झांसी प्रवास के दौरान जब भी कोई उन्हें अपने बेटे-बेटियों की शादी में बुलाता था तो वे पूरे जोश-खरोश के साथ शामिल होती थी और ढोलक लेकर बन्ना बड़ी तन्मयता के साथ गाने लगती थी। बना की बनरी हेरें बाठ, बना मोरो कब घर आवे जू, जैसे सज गये लछमन राम, भरत खों आंगें कर लऔ जू। प्रत्येक मां की तरह चाहे मां शहीदे आजम भगत सिंह की हो या अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद की वे अपने बेटों के विवाह में बन्ना गाने की लालसा पूरी नहीं कर पायी । लेकिन देश के प्रत्येक बेटे-बेटियों में अपने ही बच्चों की छवि देखी। सारतरू मां का वात्सल्य उसके अपने घर के आंगन तक सीमित नहीं है, अपितु अपनी संसद, कार्यपालिका , न्यायपालिका , खबरपालिका (मीडिया) व शिक्षकों, वकीलों, चिकित्सकों और देश के सम्पूर्ण वायुमंडल में व्याप्त है। प्रत्येक स्त्री-पुरुष का धड़कता हुआ हृदय चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह के सपनों को साकार करने के लिए सबको खुशहाल रोगमुक्त और रोजगारयुक्त देखना चाहता है। लिख- पढ़ लला कलट्टर हुइयो, हमें चाहें फिर कछु न दिइयो, करौ नौकरी कभउँ काऊ की, मों कौ कोर खैंच जिन खइयो, मिलै पसीना की तौ खइयो, मिलै न तौ सूखेइ हरयइयो। उक्त काव्योदगार बुन्देली के जनकवि पं शिवानंद मिश्र के हैं। नौकरी के लिए अग्रसर होते समय अपने बेटे की बांह पकड़ कर जो माँ सीख देती है, उससे सर्वविदित इस सच्चाई का पता चलता है कि धरती की सभी माताएं सिर्फ अपने ही बेटे की माँ नहीं है अपितु वे सभी बेटों को हमेशा खुश रहने की लालसा रखती हैं। अगोचर ब्रह्म को तो आजतक किसी ने देखा नहीं है, परन्तु माताओं की गोद में बैठकर सभी ने प्रत्यक्ष ब्रह्म को सदा महसूस किया। वात्सल्य की बुद्धिमत्ता ही अहंकार की ज्वालाओं को शान्त कर सकती है। बड़े भाई बलराम का, बाल कृष्ण को बार बार तंगाना। कोसों कहत मोल कौ लीनो, तू जसुमति कब जायो?कोई कैसे सहन कर सकता है। अंततरू रूठे-रोते कृष्ण को मनाने और हँसाने के लिये माता यशोदा को गिरिराज गोवर्धन तक की कसम खानी पड़ी- सूर श्याम मोहिं, गोधन की सौं हौं, माता, तू पूत। जबकि सर्वविदित है कि उनकी पेट माता तो देवकी हैं। तो क्या उन्होंने झूठी कसम खाई? नहीं बिल्कुल नहीं। कौन नहीं जानता कि देवकीनंदन सुनने से ज्यादा आनन्दानुभूति, यशोदानंदन से होती है। दोनों पूरक हैं। परन्तु आदर्श मातृत्व की चरम विकास माता यशोदा में परिपूर्णता के साथ झलकता और छलकता है। बच्चे की प्रथम गुरू माँ होती है। वह दूध पिलाते पिलाते परस्पर प्रेम करने और प्रेम कराने का पाठ पढ़ती और पढ़ाती है। संसार भर के बच्चे माँ से भाषा सीखते हैं। मैया मैं तो चन्द खिलौना लैहों, की बाल हठ को पूरा करने के लिए, आसमान के चांद तक को यशोदा जी धरती पर ला देती हैं। मशहूर शायर निदा फाज़ली के शब्दों में मां की महिमा की एक वानगी देखिए। बेसन की सौंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी मां, याद आती है! चौका बासन चिमटा फुकनी जैसी मां। बांस की खर्री खाट के ऊपर हर, आहट पर कान धरे, आधी सोई आधी जगी थकी, दो-पहरी जैसी मां। धरती पर मनुष्योचित् जीवन की स्थापना करने के लिए मैक्सिम गोर्की के विश्व प्रसिद्ध उपन्यास मां में माता के क्रान्तिकारी संघर्ष की सार्थ भूमिका बड़ी बुलंदी के साथ चित्रित की गई है।