अभूतपूर्व संकट के बीच विक्रमसिंघे की लीडरशिप अब श्रीलंका में क्या गुल खिलाएगी ?

in #india2 years ago

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इस साल मार्च की शुरुआत से ही श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में कुछ अशुभ होने के संकेत मिलने शुरू हो गए थे. तब इस द्वीप राष्ट्र में खाद्य मुद्रास्फीति आसमान छू रही थी. चीनी और चावल जैसी आम जरूरत की बुनियादी चीजें एक साल पहले की तुलना में लगभग दोगुनी कीमतों पर बिक रही थीं.

हालांकि, पहली बार स्थिति की भयावहता का श्रीलंका के नागिरकों को तब एहसास हुआ, जब अप्रैल के पहले हफ्ते में सरकार ने राजधानी में एक हफ्ते के कर्फ्यू का एलान कर दिया. सरकार ने यह फैसला वहां ईंधन स्टेशनों के बाहर लग रही लंबी कतारों के मद्देनजर लिया था. बस फिर क्या था सरकार के इसी फैसले के खिलाफ लोग सड़कों पर उतर आए थे.

इसके बाद प्रदर्शनकारियों के एक छोटे से समूह ने गॉल सीफ्रंट में राष्ट्रपति भवन के ठीक सामने अपने तंबू गाड़ दिए. उन्हें लगा कि मौजूदा गड़बड़ी पर राष्ट्रपति को फैसलें लेने होते हैं और उन फैसलों के लिए अंतिम जिम्मेदारी स्वीकार करनी होती है. इससे यह तेजी से साफ होता जा रहा था कि श्रीलंका की जनता पर राजपक्षे वंश का नियंत्रण कम हो रहा है. यह परिवार साल 2005 से श्रीलंका की सत्ता पर काबिज रहा है.

पांच साल के अंतराल के बाद, राजपक्षे ने 2019 के आम चुनावों में एक शानदार जनादेश से जीत हासिल की. तब महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री और उनके भाई गोटाबाया को राष्ट्रपति बनाया. कई अन्य शीर्ष राजनीतिक कार्यकारी पद भी राजपक्षे परिवार के सदस्यों को दिए गए.

थोड़ा रुककर यह समझने की कोशिश करना जरूरी है कि आखिर क्यों भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण एशिया में सबसे शक्तिशाली और अच्छी तरह से स्थापित राजनीतिक राजवंशों में से एक राजपक्षे वंश ने कुछ ही महीनों में अपनी सत्ता गवां दी. ये वंश श्रीलंका में बेहद क्रूर और सख्त तरीके से शासन करने के लिए मशहूर है. हो भी क्यों न ! आखिरकार वह राजपक्षे परिवार ही था, जिसे लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम या लिट्टे का सफाया करने का सारा श्रेय दिया जाता है.

राजपक्षे वंश के लोकप्रियता चार्ट में नीचे आने का रिश्ता श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था में मंदी के साथ ही शुरू होता है. शुरुआत साल 2019 में कोलंबो के एक होटल में ईस्टर संडे पर हुए बम विस्फोटों से हो गई थी. इस आतंकी हमले में सैकड़ों लोग मारे गए और अपंग हो गए थे. इस वजह से श्रीलंका की पर्यटन अर्थव्यवस्था को गंभीर झटका लगा था. देखा जाए तो पर्यटन इस देश की रीढ़ रहा है. गौरतलब है कि इस द्वीपीय देश में विदेशी मुद्रा भंडार में पर्यटन का अहम योगदान है.

यहां की हिलती-डुलती की अर्थव्यवस्था की रही-सही कसर कोविड महामारी ने तोड़ डाली. बाहर के देशों में रह रहे श्रीलंकाई अप्रवासी जो पैसा देश भेजते थे वह भी आना बंद हो गया, क्योंकि इस महामारी में कईयों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा. देश में विदेशी मुद्रा यानी डॉलर आने का एक अहम जरिया भी लगभग बंद हो गया. नतीजा श्रीलंका के विदेशी मुद्रा भंडार में लगातार कमी आती गई.

देश की मरती अर्थव्यवस्था के ताबूत में आखिरी कील खुद राजपक्षे सरकार ने ठोक डाली. श्रीलंका की सरकार ने साल 2021 अप्रैल में सभी रासायनिक और उर्वरक आयात पर प्रतिबंध लगा दिया था. इसके पीछे सरकार का तर्क था कि किसानों में जैविक खेती को बढ़ावा देने कि वजह से जैविक खाद्य उत्पादों में देश की अलग पहचान बनेगी और निर्यात के उद्देश्यों की पूर्ति हो पाएगी. नतीजा छह महीने में सरकार की इस नीति ने उसके लिए सिर मुंडाते ही ओले पड़े की कहावत सही साबित कर दी.

इस फैसले के बाद अनाज का उत्पादन लगभग 43 फीसदी कम हो गया तो चाय और अन्य अहम विदेशी कमाई वाली वस्तु का उत्पादन 15 फीसदी घट गया. आनन-फानन में सरकार ने इस फैसले को रद्द कर दिया, लेकिन नुकसान पहले ही हो चुका था. पर्यटन मंदी की तिहरी मार, कोविड -19 के झटके और उर्वरक नीति ने श्रीलंका को विदेशी मुद्रा भंडार में गरीब बना दिया.

एक ऐसे देश के तौर पर जो ईंधन से लेकर चावल जैसे मुख्य खाद्य पदार्थों तक सब कुछ आयात करता है. इस तरह की स्थितियों में उसके पास आयात के लिए भुगतान करने के लिए बहुत कम पैसा था. इस दौरान श्रीलंका की प्रति व्यक्ति जीडीपी जो कुछ साल पहले भारत से काफी ऊपर थी उसमें लगातार एक स्थिर और तेज गिरावट दिखने लगी.

द्वीप राष्ट्र चार दशकों में सबसे खराब आर्थिक संकट का सामना करने पर मजबूर हो गया. ईंधन और भोजन की कमी तो थी.आलम यह था कि कोलंबो के अस्पतालों को लंबी बिजली कटौती के मद्देनजर बड़ी सर्जरी स्थगित करने के लिए मजबूर किया जा रहा था.

ऐसे में श्रीलंका के लोगों ने अपनी दुर्दशा के लिए सीधे तौर पर राजपक्षे को दोषी ठहराया. कोलंबो में शुरू हुए विरोध ने जल्द ही एक पूरे बगावती विद्रोह की शक्ल अख्तियार कर ली. प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने जनता के गुस्से को शांत करने के लिए इस्तीफा दे दिया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. हालात नियंत्रण से बाहर हो गए. भीड़ ने सत्ताधारी पार्टी के सांसदों को मारना और पीटना शुरू कर दिया. प्रदर्शनकारियों राष्ट्रपति भवन में आग लगा दी.

इस वजह से राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को जल्दबाजी में पीछे हटना पड़ा. उन्होंने एक नौसैनिक जहाज में देश छोड़ दिया. जाते-जाते वह अपने एक वक्त के कट्टर प्रतिद्वंद्वी रहे रानिल विक्रमसिंघे को देश की बागडोर सौंप गए. जनता के गुस्से का उबाल बढ़ता गया. लोग सरकार के फैसले से संतुष्ट नहीं थे.

उन्होंने सत्ताधारी गुट के सत्ता की बागडोर पर नियंत्रण करने के लिए हुए इस समझौते को एक दिखावा करार दिया. यही वजह है कि विक्रमसिंघे के आवास को भी प्रदर्शनकारियों ने नहीं बख्शा, हालांकि उन्हें अपनी राजनीति में काफी हद तक राजपक्षे के विरोधी के तौर पर देखा जाता रहा है.

हालांकि, यह विडंबना ही है कि लंबे समय से राजनेता रहे रानिल विक्रमसिंघे और पूर्व पीएम ने आखिरकार इन विपरीत परिस्थितियों के बीच राष्ट्रपति बनने के अपने लंबे वक्त से पल रहे सपने को साकार कर लिया है. यह तब हुआ है जब उन्हें हाशिये पर धकेल दिया गया था. संसद में उनकी पार्टी के इकलौते सांसद को सबसे पहले उनके धुर विरोधी ने प्रधानमंत्री के रूप में नामित किया था. और अब, गोटाबाया के चले जाने के बाद, उन्हें राजपक्षे के वफादारों से भरी संसद ने राष्ट्रपति के तौर पर चुन लिया है.

नए राष्ट्रपति के तौर पर रानिल विक्रम सिंघे के पास करने के लिए ज्यादा कुछ रहा नहीं है. श्रीलंका पहले ही अपने विदेशी ऋणों को चुकाने में नाकाम रहा है. दो दशकों में श्रीलंका ऐसा करने वाला एशिया-प्रशांत का पहला देश है. हालांकि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 3 बिलियन डॉलर के बेलआउट पैकेज को सुरक्षित करने के कोशिशों में एक महीने की देरी हुई है. ये मदद सितंबर तक श्रीलंका तक पहुंच सकती है.

हालांकि जब तक भुगतान संकट पर काबू नहीं पाया जाता तब- तक देश में ईंधन की राशनिंग और उसके बांटने का एलान कर दिया गया है. इस दौरान विक्रमसिंघे ने अर्थव्यवस्था और लोगों के गुस्से और हताशा दोनों को ही काबू में रखने की चुनौती से निपटने का सटीक इंतजाम कर लिया है. यही वजह है कि उन्होंने सशस्त्र बलों को कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए साफ निर्देश दिए हैं.

विक्रमसिंघे कितने समय तक पद पर रहते हैं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वो श्रीलंका के लोगों के लिए कितनी तेजी से और कितनी मदद जुटाने में सक्षम हैं. खास तौर पर स्टेपल यानी मुख्य खाद्य पदार्थों और आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति को लेकर. द्वीप राष्ट्र में वर्तमान राजनीतिक संकट भोजन और जरूरी चीजों की कमी के चलते हुआ था. श्रीलंका संकट की तुलना एक दशक पहले पश्चिम एशिया के अरब वसंत से की जा रही है.

मध्य पश्चिमी एशिया एवं उत्तरी अफ्रीका में श्रृखंलाबद्ध विरोध-प्रदर्शन और धरनों का दौर 2010 से शुरू हुआ था. इसे ही अरब जागृति, अरब स्प्रिंग या अरब विद्रोह कहा जाता है. यह क्रांति एक ऐसी लहर थी जिसने धरना, विरोध-प्रदर्शन, दंगा तथा सशस्त्र संघर्ष की बदौलत पूरे अरब जगत सहित समूचे विश्व को हिला कर रख दिया था.

हालाकि, नए राष्ट्रपति ने पर्याप्त संकेत दिए हैं कि वह केवल कार्यवाहक राष्ट्रपति नहीं हैं. उन्होंने साफ कहा है कि उनके पूर्ववर्ती (गोटाबाया) के जल्द ही घर लौटने के लिए स्थिति अनुकूल नहीं है. ऐसा लगता है कि रानिल विक्रमसिंघे जल्दी में नहीं हैं क्योंकि वह लंबी दौड़ की तैयारी कर रहे हैं.