ना आवास, ना शौचालय और ना ही स्नानघर यह है कैसी लाचारी, जो पीड़ितों की बेबसी पर भारी
हाथरस। केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार है। मतलब यह है कि जो सरकार है, वह डबल इंजन की सरकार है। इसलिए काम ज्यादा-आराम कम, विकास ज्यादा-रिश्वत कम। जिसके कारण अधिकारी अपने कर्तव्यों में लगे रहते हैं और जो भी शासन के विकास के प्रति योजना होती है उसे सफल बनाने में निरंतर मेहनत करते रहते हैं। परंतु इतने के बावजूद भी कुछ अधिकारियों की अनदेखी और कुछ क्षेत्रीय भ्रष्ट नेताओं के कारण कुछ जगह विकास का पहिया थमा हुआ है। जहां पर विकास का पहिया थमा हुआ है या चल नहीं रहा है, वहां के रहने वाले वाशिंदों की आंखों में एक लालसा हमेशा रहती है कि कोई तो ऐसा आएगा जो हमारी सुनेगा, परंतु कुछ जगह तो वह आंखें भी अब थक गई हैं और आशा छोड़ चुकी हैं कि शायद कोई आएगा और उनकी मजबूरी, लाचारी और बेबसी को दूर करेगा। इतना तो है कि प्रधानी के चुनाव के दौरान जरूर प्रधान पद के प्रत्याशी गांव में पहुंचे थे, जिन्होंने उनको आश्वासन दिया था कि विकास की धारा अबकी बार इस गांव में जरूर रहेगी, अगर वह जीत गये तो। जब वह जीत गए और प्रधान बन गए तो प्रधान जी अपने किए हुए वायदों को ही भूल गए।
जी हां हम बात कर रहे हैं नगला सिंधी की। जहां गरीबी, लाचारी और बेबसी सब एक साथ देखने को मिलती है। क्योंकि यहां पर रहने वाले कई परिवारों पर (जो अपना जीवन यापन बहुत मजबूरी में कर रहे हैं) उन पर ना तो सरकारी योजनाओं के तहत बनने वाला आवास है और जब आवास नहीं है तो स्नान घर भी नहीं है। खास बात तो यह है कि खुले में शौच मुक्त भारत का अभियान भी यहां लगभग फैल ही नजर आता है क्योंकि शौचालय भी इनके यहां पर नहीं हैं। इन परिवारों पर इतना रुपया भी नहीं है कि स्वयं यह सब बनवा लें। अपनी इज्जत का तमाशा होने से बचा सके और बीमारियों से भी खुद को बचा सकें।
जहां एक ओर देश के प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत मिशन (खुले में शौच मुक्त भारत) अभियान को तेजी के साथ रफ्तार से सफल बनाने के लिए प्रयास के लिए उनके इस अभियान की देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी तारीफ होने लगी। सभी ने कहा कि हम आपके साथ हैं। सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय बनाने के लिए करोड़ों रुपए पानी की तरह बहा दिया। परंतु कुछ क्षेत्रीय भ्रष्ट नेताओं और कुछ अधिकारियों की मिलीभगत के कारण कुछ जगह इस अभियान को पलीता लगा दिया गया। आज भी नगला सिंधी में कई ऐसे परिवार हैं, जिनके यहां शौचालय नहीं बने हैं। कुछ के यहां बने भी थे तो वे अधूरे पड़े हैं। अब ऐसी स्थिति में क्या होगा जब मानसून नजदीक है? घरों में शौचालय नहीं, इतना ही नहीं कुछ महिलाओं ने बताया कि जब हम खुले में शौच के लिए जाते हैं और वहां से कोई व्यक्ति गुजरता है तो कितनी शर्म हमको आती है यह कह पाना मुश्किल है। हमको अपनी ही नजरों में लज्जित होना पड़ता है। सच्चाई भी यही है कि जहां एक ओर इस देश में महिला का सम्मान सर्वोपरि रखा है, उतना ही सम्मान पाने में वह नीचे रह जाती हैं। क्योंकि उनकी आवाज कोई बनना नहीं चाहता और ना ही सुनना चाहता।
अपनी इज्जत की खातिर बनाए हैं काम चलाऊ स्नानघर!
इसी नगला की रहने वाली एक नहीं कई महिलाओं ने एक और खास बात पर अपनी बात रखी कि आखिर कैसे वे खुले में स्नान करें। इन्होंने अपने स्नान के लिए भी साधारण से ही इंतजाम कर लिए हैं क्योंकि इज्जत तो इज्जत होती है। कुछ ने बिना सीमेंट के ही ईंटों को खड़ा करके तो कुछ ने चादर लटकाकर और कुछ ने तो चारपाई को खड़ा करके स्नान घर बनाया है, लेकिन फिर भी इनको हमेशा डर सताता रहता है कि कहीं कोई आ ना जाए। आखिर कब खत्म होगा इन महिलाओं का डर? कई महिलाएं तो बताते हुए रो भी गईं कि आखिर वह करें भी तो क्या करें, किससे कहें, कैसे कहें, कौन सुनेगा और फिर कौन मदद करेगा? अब तो उनको भी लगता है कि शायद उनकी कोई सुनने वाला ही नहीं है। उनको व उनके बच्चों को ऐसे ही जीवन यापन करना पड़ेगा। क्योंकि वे गरीब लाचार और मजबूर है।
आखिर कौन सा प्रधान और अधिकारी सुनेगा इनकी फरियाद, जो बनवायेगा इनके आवास?
अब कुछ बातें प्रधानमंत्री योजना के तहत बनने वाले आवासों की भी कर लें कि आखिर क्यों गरीबों को आवासीय योजना का लाभ नगला सिंघी में रहने वाले पात्रों को नहीं दिया जा रहा है, यह बात कुछ समझ नहीं आ रही है। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत उन पात्र परिवारों को आवासीय योजना का लाभ हर कीमत पर मिल जाना चाहिए, जो वास्तविकता में आवास के लिए पात्र हों, लेकिन ऐसा नगला सिंघी में देखने को नहीं मिल पा रहा है। क्या कारण है कि नगला सिंघी के इन गरीब और बेबस परिवारों को इस सरकारी योजना का लाभ नहीं दिया जा रहा है?
नगला सिंघी में अगर अंजली का घर देखा जाए तो यह कहना गलत नहीं होगा कि उसको सरकारी सुविधाओं का बहुत अभाव है। गांव के बाहर एक ओर जहां चारों ओर खेत हैं, वहां पर छप्पर का घर, टूटे हुए दरवाजे में अपने छोटे बच्चों और पति के साथ मजदूरी करके जीवन यापन कर रही है और आँस लगाए हुए हैं कि शायद कोई उसकी सुन ले जो सरकारी योजना के तहत उसका आवाज बनवा दे।
यही हाल शमलेश का है। उसका भी घर खेतों के पास गांव के एक छोर पर है, वह भी छप्पर में बिना शौचालय और बिना स्नान घर के ही अपने परिवार के साथ अपना जीवन यापन कर रही है। उसको भी लगता है कि शायद कभी तो दौर बदलेगा, जब शायद उसकी कोई सुन ले। इस बार तो झूठे वायदों में ही इतना समय निकल गया।
बात यहीं नहीं रुकती क्योंकि वहीं की रहने वाली नीलू पत्नी श्याम सुंदर की करें तो उसकी भी बेबसी शायद अभी तक किसी अधिकारी और किसी क्षेत्रीय नेता को नजर नहीं आई। जिसके कारण आज तक खुले घर, जिस पर केवल फूस का बना छप्पर हो, वह कैसे अपना जीवन यापन कर रही होगी यह समझना कोई कठिन कार्य नहीं है।
कामिनी की लाचारी, बेबसी और गरीबी की बात करें तो क्या करें? अब समझ नहीं आ रहा कि आखिर कौन मदद करेगा? क्योंकि इनकी भी वही समस्या है जो औरों की है। यह भी टूटे-फूटे कच्चे घर में ही अपने परिवार के साथ अपना जीवन यापन कर रही है। इनके यहां भी शौचालय बना था, जो आज तक अधूरा ही है।
क्या लग पाएंगी, बिजली के खंभों पर स्ट्रीट लाइटें ?
अब हम गांव के प्रधान और सेक्रेटरी द्वारा किए गए एक और अन्य विकास पर प्रकाश डालते हैं। क्योंकि उनके विकास का प्रकाश इतना है कि अधिकतर जगह रात के समय अंधेरा ही अंधेरा नजर आता है। गांव के अधिकतर बिजली के खंभों पर लगाई जाने वाली स्ट्रीट लाइटें ही नजर नहीं आती हैं। जबकि सरकार द्वारा गांव-गांव व सड़क-सड़क को जगमगाता हुआ रखने के लिए निरंतर प्रयास किया जा रहा है। फिर भी यह गांव अधिकतर सुविधाओं से जाने क्यों वंचित है, यह कह पाना बहुत मुश्किल है। खंभों पर स्ट्रीट लाइटें ही नहीं है, लाइटें ही नहीं होंगी तो जलेंगीं कैसे, जब जलेंगीं ही नहीं तो गलियों में उजाला कैसे रहेगा और जब उजाला ही नहीं होगा तो वहां के रहने वाले अधिकतर परिवारों को अंधेरे से मुक्ति कैसे मिलेगी? वह कैसे उजाले का उजाले का महत्व समझेंगे? क्योंकि जिन लोगों के यहां शौचालय नहीं है अगर उनके परिवार में कभी रात को शौच के लिए पेट में अगर दर्द उठे तो आखिर अंधेरे में कैसे जंगल में जाएंगे।
जिले के जिम्मेदार अधिकारियों को इस ओर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। जिससे कि उन गरीबों का भला हो सके और सरकार के द्वारा दी जाने वाली सरकारी सुविधाएं भी उन्हें मिल सके।