आर्यन ख़ान ड्रग्स मामला: मीडिया न माफ़ी मांगेगा और न ही उसे दंड मिलेगा- नज़रिया

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NEWS DESK: WORTHEUM : PUBLISHED BY, SURENDRA PRATAP,02 May 2022, 12:35 AM IST
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ड्रग्स मामले में नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो से आर्यन ख़ान को क्लीन चिट मिलने के बाद एक बार फिर से मीडिया सवालों के घेरे में है. इस मामले में मीडिया की भूमिका को रेखांकित करते हुए लोग मीडिया को कोस रहे हैं, उससे माफ़ी मांगने के लिए कह रहे हैं.

कई लोग ये भी कह रहे हैं कि ऐसे न्यूज़ चैनलों और उनके पत्रकारों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज़ किए जाने चाहिए जिन्होंने बेगुनाह आर्यन ख़ान के ख़िलाफ़ न केवल दुष्प्रचार किया बल्कि कार्रवाई का एकतरफ़ा समर्थन करते रहे.
आर्यन ख़ान की गिरफ़्तारी से लेकर उन्हें ज़मानत न मिलने देने की कोशिशों तक बार-बार ये साफ़ दिख रहा था कि एनसीबी किसी ख़ास एजेंडे के तहत काम कर रही है.

एक मुसलमान सुपरस्टार के बेटे को झूठे आरोपों में फंसाने की बात अब एनसीबी खुद कह रही है. मगर जिनकी आंखें बंद नहीं थीं, वे तब भी इस सच्चाई को देख पा रहे थे. मुख्यधारा की मीडिया को यह नहीं दिखा.
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उसे एनसीबी और उसके विवादास्पद अधिकारी समीर वानखेड़े की कार्रवाई में कोई खोट नहीं नज़र नहीं आया. गिरफ़्तारी और उसके बाद एनसीबी के दफ़्तर में बीजेपी के नेताओं की मौजूदगी पर भी उसने आंखें मूंदे रखीं.

मीडिया ने आर्यन ख़ान की गिरफ़्तारी के दौरान मांगी गई पचास लाख की फिरौती को सनसनीखेज़ ढंग से तो प्रस्तुत किया मगर वहां भी उसका रवैया एकतरफ़ा रहा. यहां तक की आर्यन को ज़मानत न मिले इसके लिए की जा रही कोशिशों के साथ भी वह खड़ा दिखाई दिया.

ज़्यादातर लोग इस पूरे मामले को आर्यन के मीडिया ट्रायल के रूप में देख और प्रस्तुत कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में ये उससे कहीं बड़े अपराध में भागीदारी का मामला है.

मीडिया एक बेगुनाह को न केवल बदनाम करने में जुटा हुआ था, बल्कि वह उसको फंसाने में लगे लोगों को बचाने और उन्हें हीरो के रूप में पेश करने में भी लगा हुआ था. उसका अपराध जितना दिखता है उससे कई गुना बड़ा है.

इस कांड में मीडिया की इस भूमिका में सत्ता के साथ भागीदारी को देखने के लिए उस वक़्त में लौटना होगा और तत्कालिक संदर्भों को भी देखना होगा. आपको याद होगा कि उस समय उत्तर प्रदेश के चुनाव के लिए माहौल गरमाया जा रहा था. हिंदू-मुसलमान का नरेटिव बनाया जा रहा था.

बहुत सारे लोगों का मानना है कि इसके लिए एक ऐसे सुपरस्टार को दबोचा गया जो मुसलमान हैं और हिंदुत्ववादियों की आंखों में चुभते भी रहे हैं. लिहाज़ा इसे उनके बेटे के ज़रिए उन्हें सबक सिखाने की भी एक कोशिश मानी गई.

फिर इसी बीच अडानी बंदरगाह पर ड्रग्स की भारी खेप पकड़ी गई थी.

वह वहां कहां से आई, कैसे आई और क्या पोर्ट पर ड्रग्स के आने-जाने का सिलसिला पहले से होता रहा है, ये सवाल उठने लगे थे. लेकिन मीडिया ने इस ओर ध्यान न देने में ही भलाई समझी. वह ड्रग्स के ज़खीरे की बरामदगी को छोड़कर ड्रग्स-सेवन के ऐसे मामले को उछालने मे जुट गया जो कि दरअसल झूठा था, फ़र्ज़ी था. कहीं वह देश का ध्यान बंटाने की इस तिकड़म में कोई भूमिका तो नहीं निभा रहा था?

साफ़ है कि ये मीडिया ट्रायल नहीं था. ठीक उसी तरह से जैसे सुशांत राजपूत के मामले में उसने जो किया था, वह केवल मीडिया ट्रायल नहीं था. रिया चक्रवर्ती के मामले में भी एनसीबी का एजेंडा सामने आ चुका है. इस कांड में केंद्र सरकार की भूमिका से भी सभी वाकिफ़ हैं.

सबको पता है कि मामला महाराष्ट्र का था, लेकिन एक केस बिहार में दर्ज़ करवाकर जांच अपने हाथ में ली गई. मनमाने ढंग से गिरफ़्तारियां की गईं. मीडिया ने सरकार की हर कार्रवाई को जायज़ और ज़रूरी ठहराया. और ध्यान रहे, वह वक़्त था बिहार के विधानसभा चुनाव का.

आप केंद्रीय एजंसियों और मीडिया की भूमिका में एक तरह का तारतम्य देख सकते हैं, दोनों की जुगलबंदी देख सकते हैं. ये अनायास नहीं है. ये केवल टीआरपी बटोरकर धंधा चमकाने का मामला भर नहीं है.

सच्चाई ये है कि मीडिया नोम चोम्स्की के प्रोपेगंडा मॉडल पर काम कर रहा है. वह सत्ताधारियों का हथियार बनकर उनके लिए प्रोपेगंडा कर रहा है. ये भी कहा जा सकता है कि सत्ता जिस तरह की सहमति देश में चाहती है, वह उसका निर्माण करने में जुटा हुआ है. इसके लिए अगर स्याह को सफ़ेद करना हो तो उसे इसमें कोई गुरेज नहीं होता.

सरकारें उन मीडिया संस्थानों को संरक्षण देती हैं जो उसके एजेंडे को प्राण-पण से आगे बढ़ाने में लगे हुए होते हैं, मौजूदा समय भी इसकी तस्दीक कर रहा है.

अभी भी मीडिया का एक छोटा-सा हिस्सा अपना काम ईमानदारी से कर रहा है, मगर उसके साथ क्या हो रहा है इसे भी देखा जाना चाहिए. उसे धमकाया जा रहा है, छापे डलवाए जा रहे हैं. उसके ख़िलाफ़ मुक़दमे कायम किए जा रहे हैं, ताक़ि उसे चुप करवाया जा सके.

इसलिए माफ़ी की मांग करना फिजूल है, हास्यासपद है. ये हमारा बचकानापन है कि हम मीडिया के इस चरित्र को न समझते हुए ऐसी मांग कर रहे हैं, मानो हमेशा ईमानदारी की राह पर चलने वाले किसी व्यक्ति से कोई भूल हो गई हो और अगर वह क्षमायाचना कर ले तो काफी होगा.

अव्वल तो ये मीडिया इतना ढीठ है कि माफ़ी मांगेगा ही नहीं, न तो ये उसके स्वभाव में है और न ही उसके स्वामियों को उससे ये अपेक्षा है. वह रोज़ बड़ी-बड़ी ग़लतियां करता है और बगैर माफ़ी मांगे आगे बढ़ जाता है. इस बार भी वह यही करेगा. हल्के-फ़ुल्के ढंग से कहीं कुछ कह भी दिया गया तो उसका कोई अर्थ नहीं है.
यदि मीडिया माफिया में तब्दील हो गया है, एक संगठित आपराधिक गिरोह की तरह व्यवहार करने लगे तो उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई होनी चाहिए. लेकिन प्रश्न ये है कि ये कार्रवाई करेगा कौन? कार्रवाई करने वालों का संरक्षण ही ऐसे गिरोह को मिल रहा हो तो किसी तरह की दंड मिलने की उम्मीद बेमानी ही है.

इसलिए लकीर पीटना बंद करना चाहिए. हाहाकार करने और निंदा-भर्त्सना से कुछ नहीं होगा क्योंकि मीडिया की चमड़ी मोटी हो चुकी है और उसमें ढिठाई का लेप भी लगा लिया गया है. वह नहीं बदलेगा क्योंकि उसे बदलने ही नहीं दिया जाएगा.

अगर हम सचमुच में बदलाव चाहते हैं तो हमें बड़ी तस्वीर को देखना चाहिए. इस तस्वीर में मीडिया के साथ और भी शक्तिशाली किरदार मौजूद हैं.

दरअसल, ये मामला पूरी व्यवस्था का है, लोकतंत्र का है. तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं के अस्तित्व पर सवाल उठ रहे हैं और मीडिया भी उनमें से एक है.

SURENDRA PRATAP

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सब गेम है। जांच के घेरे में तो सब है।

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