ऐतिहासिक कुंआ-बावड़ियों का नगर-चन्देरी

in #ashoknagar2 years ago

अशोकनगर : अनेकता में एकता का संदेश देती ऐतिहासिक एवं पर्यटन नगरी चंदेरी अपनी अनन्य विशेषताओं के कारण सब दूर प्रचारित है मसलन- विरासत, धार्मिक, आध्यात्मिक, प्राकृतिक, साहसिक, लोक संस्कृति, एवं हस्तशिल्प कला का अद्भुत नमूना चंदेरी साड़ियां वगैरह वगैरह।

     जब हम विरासत नगरी चंदेरी की बात करते हैं तो विरासत अंतर्गत एक नहीं कई प्रकार की मूर्त-अमूर्त विरासत हमारे समक्ष उपस्थित है। यह अलग बात है कि कौन किस विरासत को प्राथमिकता प्रदान करता है।

    हम बात कर रहे हैं नगर के जल विरासत रूपी ऐतिहासिक एवं प्राचीन कुंआ बावड़ियों की। जो सदियों से नगर में आज भी ज्यों की त्यों स्थिति में उपस्थिति दर्ज कराए हुए शोध एवं खोज हेतु उत्तम विषय सहित पवित्र मानवीय संदेश देने का मूक कार्य करती नजर आती है। इस क्रम में याद रखना यह जरूरी है कि कुंआ-बावड़ियां  जल विरासत, जल संस्कृति की वह बहुआयामी संरचनाएं हैं जो हमारी एक नहीं अनेक प्रकार की जिज्ञासाओं का समाधान करने का माध्यम बनती है। 

    नगर में एक नहीं, एक दर्जन नहीं, एक सैकड़ा नहीं इससे भी अधिक स्थापित कुंआ-बावड़ियां नगर की पूर्व कालीन जल व्यवस्था, जल संरक्षण संवर्धन, वास्तुकला, निर्माणकर्ता की मानव कल्याण सार्वजनिक उत्तम एवं पवित्र सोच की ओर इशारा करती है। यही नहीं नगर एवं क्षेत्र में स्थित कुंआ-बावड़ियां मात्र जल व्यवस्था तक सीमित न होकर हमारी समृद्धशाली गौरवमय अतीत से परिचय कराने का प्रमाणिक साक्ष्य भी बनती है।

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कुंआ-बावड़ियों में जड़ित अभिलेख जिन्हें स्थानीय स्तर पर बीजक कहा जाता है उन पर सदियों पूर्व उत्कीर्ण की गई इबारत हमें यह बताती है कि बावड़ी का निर्माण कब और किसने किस उद्देश्य को सामने रखकर करवाया। आज भी बत्तीसी बावड़ी (1485 ईस्वी), गोल बावड़ी (1502 ईस्वी), चदाई बावड़ी (1459-60 ईस्वी), काजी बावड़ी (1485 ईस्वी), तपा बावड़ी (1405-1435 ईस्वी), अलिया बावड़ी (1499), मचला बावड़ी हलनपुर (1500), गचाउ बावड़ी प्राणपुर (1520 ईस्वी), जनाजन बावड़ी प्राणपुर (1469-1500 ईस्वी), राजमति बावड़ी सिंहपुर चाल्दा (1479 ईस्वी), पुरानी बावड़ी बारी (1686 ईस्वी) इत्यादि के अभिलेख (बीजक) अपनी दास्तां सुनाने में सक्षम है।

     वहीं दूसरी ओर बादल महल बावड़ी (15वीं सदी), मूसा बावड़ी (15वीं सदी), खिन्नी बावड़ी (15वीं सदी), राजा बावड़ी (15वीं सदी), पचमढ़ी बावड़ी (15वीं सदी), अकोल बावड़ी (17वीं सदी), फूलबाग बावड़ी (18 वीं सदी), दरीबा बावड़ी (17वीं सदी), चकला बावड़ी (15वीं सदी), चुगनू बावड़ी (17-18 वीं सदी), पहाड़ी बावड़ियां (15वीं सदी), पाडे की बावड़ी, नई बावड़ी, चेतन बावड़ी, वीर बावड़ी, चंदन बावड़ी, बड़ी बावड़ी, चोपड़ा बावड़ी, झालरा बावड़ी, अनार बावड़ी, इमरती बावड़ी, छदा बावड़ी, नाक बावड़ी, खारी बावड़ी, रिमझाई बावड़ी, गरमाई बावड़ी, गंगादासी बावड़ी, हरकुण्ड बावड़ी, फूटी बावड़ी, बाबा बावड़ी, डबाउ बावड़ी (प्राणपुर), आम बावड़ी (प्राणपुर), झलारी बावड़ी, छोटी बत्तीसी बावड़ी (मुरादपुर) सहित एक नहीं अनेक अन्य प्राचीन बावड़ियां मौजूद होकर विभिन्न नाम से जानी पहचानी जाती हैं, जो इस नगर को बावड़ियों का नगर संबोधित करने में सहायक भूमिका अदा करती हैं। आश्चर्य होता है कि सदियों पूर्व निर्मित कुछ बावड़ियां आज भी ज्यों की त्यों स्थिति धारण किए हुए हैं।

    पृथक पृथक वास्तुकला से परिचय कराती बावड़ियों की यह एक विशेषता ही कहीं जावेगी कि वास्तुकला मान से किसी का किसी से कोई मिलान नहीं होता है। अधिकतर बावड़ियां कुछ-न-कुछ विशेषता धारण किए हुए अपने आप में अलग होकर चंदेरी पर्यटन को बढ़ावा देने में अपना योगदान प्रद्वत कर रही हैं। 

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नगर की ऐतिहासिकता को प्रमाणित करती नगरीय विरासत जहां बत्तीसी बावड़ी एवं बादल महल बावड़ी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (भारत सरकार) द्वारा संरक्षित है, वहीं दूसरी ओर उन्नीस बावड़ियां राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित है, कुछ और बावड़ियां संरक्षण की कतार में है। बावजूद इसके अभी भी एक नहीं अनेक पूर्व कालीन मध्यकालीन बावड़ियां नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्र में स्थित हैं जिन्हें संरक्षण और संवर्धन की दरकार है।

    यद्यपि राज्य पुरातत्व विभाग और नगरीय निकाय द्वारा कई कुंआ-बावड़ियों का जीर्णोद्धार किया गया है फिर भी अभी कई कुंआ-बावड़ियां ऐसे हैं जो कहीं आंशिक तो कहीं उससे भी अधिक क्षति ग्रस्त हैं कई अपना वजूद खोने की कगार पर है जिन्हें बचाया जाना संरक्षण संवर्धन किया जाना शासन के साथ साथ हम सब की नैतिक जिम्मेदारी है क्योंकि जल ही जीवन है।

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