यहां एक ऐसा सरोवर है जिसकी मान्यता है कि यहां स्नान करने से रोगी निरोगी हो जाता है

in #anokha2 years ago

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गोंडा के बलरामपुर रोड पर सुभागपुर के पास महर्षि चयवनमुनि का आश्रम आज भी मौजूद है बताया गया है यहां बहुत बड़ा जंगल था चूंकि यह क्षेत्र गोनर्द कहलाता था यहाँ भगवान राम की गाये चरने आती थी।यहीं पर महर्षि चयवनमुनि तपस्या कर रहे थे तपस्या में लीन होने के कारण उनके पूरे शरीर पर धीमको ने अपना टीला बना लिया था केवल आंखे चमक रही थी।उस राजा शर्याति का शासन काल था राजा रानी और दो पुत्रियों के साथ वन बिहार पर आए थे वे एक स्थान पर विश्राम कर रहे थे तभी राजकुमारी सुकन्या को एक मिट्टी के टीले में दो चमकते हुए मडी का अहसास हुआ वे एक लकड़ी से मडी को निकालने लगी तभी मडी से खून की धारा बह निकली तो राजकुमारी घबराई और राजा से यह बात बताते राजा जब वहां पहचे तो बताया की ये महर्षि चयवनमुनि तपस्या कर रहे थे तुमने तो आंखे फोड़ दिया तभी महर्षि की कराहने की आवाज आई तो राजकुमारी घबरा कर कांपने लगी,राजकुमारी ने कहा पिता जी मैं महर्षि से विवाह कर के इनकी आंख बन कर पाप का प्रायश्चित करूँगी,राजा ने कहा कि ये बहुत व्रद्ध है लेकिन राजकुमारी ने कहा कुछ भी हो मुझे आशीर्वाद दीजिये,राजा ने राजकुमारी सुकन्या का महर्षि चयवनमुनि के साथ विवाह कर दिया तभी देवताओ ने महर्षि को च्यवन जड़ी बूटी का उपभोग करने को बताया जिसका उपभोग करते महर्षि भी युवा हो गए। लोगो की मान्यता है आश्रम से सटे सरोवर में जड़ी बूटी देवताओ ने डाली थी जिसमे नहाने से रोगी निरोगी हो जाते है यह मान्यता आज भी लोग मान कर सरोवर में स्नान करते है।आज के दिन आश्रम पर मेला लगता है जहां हजारो लोग भाग लेते है।

च्यवन ऋषि ने ही जड़ी-बुटियों से 'च्यवनप्राश' नामक एक औषधि बनाकर उसका सेवन करके वृद्धावस्था से पुनः युवा बन गए थे। महाभारत के अनुसार, उनमें इतनी शक्ति थी कि वे इन्द्र के वज्र को भी पीछे धकेल सकते थे। च्यवन ऋषि महान् भृगु ऋषि के पुत्र थे। इनकी माता का नाम पुलोमा था। इनकी ख्‍याती आयुर्वेदाचार्य और ज्योतिषाचार्य के रूप में है। ग्रंथ का नाम च्यवनस्मृति और जीवदान तंत्र है।
महर्षि भृगु के भी दो विवाह हुए। इनकी पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या थी। दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी थी। पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या देवी से भृगु मुनि के दो पुत्र हुए जिनके नाम शुक्र और त्वष्टा रखे गए। आचार्य बनने के बाद शुक्र को शुक्राचार्य के नाम से और त्वष्टा को शिल्पकार बनने के बाद विश्वकर्मा के नाम से जाना गया। इन्हीं भृगु मुनि के पुत्रों को उनके मातृवंश अर्थात दैत्यकुल में शुक्र को काव्य एवं त्वष्टा को मय के नाम से जाना गया है।
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