बंकर में सात दिन-शरद आलोक की एक उत्कृष्ट कहानी- डॉ अर्जुन पाण्डेय

in #amethi2 years ago

बंकर में सात दिन-शरद आलोक की एक उत्कृष्ट कहानी- डॉ अर्जुन पाण्डेय
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*अन्तरराष्ट्रीय गोष्ठी आन लाईन आयोजन

अमेठी ।भारतीय नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम नार्वे के तत्वावधान में आनलाइन अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में भारतीय मूल के प्रवासी साहित्यकार डॉ सुरेश चन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक 'की कहानी ' बंकर में सात दिन ' पर परिचर्चा की गयी।
संगोष्ठी का शुभारंभ प्रमिला कौशिक द्वारा सरस्वती वन्दना से हुआ।

संगोष्ठी में मुख्य वक्ता प्रोफेसर डॉ शैलेन्द्र कुमार शर्मा ,उज्जैन , मुख्य अतिथि प्रोफेसर मोहनकान्त गौतम, नीदरलैंड रहे। अध्यक्षता प्रोफेसर कुंवर वीर सिंह मार्तण्ड, कोलकाता ने की। आनलाइन संगोष्ठी का संचालन सुवर्णा जाधव ने किया।

सर्वप्रथम कहानी का सम्यक पाठ डॉ सुरेश चन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' ने किया।

भारतीय मूल के प्रवासी सहृदय साहित्यिक रचनाकार, बहुआयामी व्यक्तित्व डॉ सुरेश चन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक ' की कहानी 'बंकर में सात दिन' यथार्थ के धरातल पर खरी और प्रेरक प्रसंगों की रोचक दास्तान है, जिसमें दादी वासुकी भारतीय परिवार व्यवस्था के केन्द्र में, जो नयी पीढ़ी के प्रतिनिधि राहुल को नयी दिशा देने कार्य करती है।
कहानी का वांग्मय हृदय स्पर्शी नैतिक सम्बल के आलोक से परिपूर्ण है। शाश्वत मूल्यों एवं सांस्कृतिक विम्बों के साथ आध्यात्मिक रसायन मौजूद है, जो लोकजीवन में महत्वपूर्ण है।

युक्रेन के लिए घर से निकलते समय राहुल को दादी समझाती हुई कहती है कि बाहर भाषा और रास्ता की समझदारी जरूरी है, साथ ही महात्मा गांधी की मां की तरह मांस, मदिरा एवं पराई स्त्री से दूर रहने की बात करती है। हनुमान चालीसा एवं भगवत गीता देकर पढ़ने के लिए भेजती है।
युक्रेन का पड़ोसी देश से भयानक युद्ध छिड़ने पर राहुल घबड़ाकर कर बंकर में सात दिन रहते हुए दादी से बचा लेने की बात करता है तो दादी कहती है- तुम्हारा बाप तो राष्ट्रवाद में फसा है, उससे कुछ भी आशा न करो। जैसे महाभारत के समय लाख के घर से पाण्डव भाग निकले उसी तरह तुम भी भाग निकलो।दादी कहती है-क्या खुशी-खुशी कोई अपना घर और देश छोड़ता है।अपना- अपना ही होता है। तुम जैसे कैसे भाग आओ।
राहुल भाग निकलता है, जहां कहीं परेशानी आती है, हनुमान चालीसा और गायत्री मंत्र पढ़ता है।पलायन करना हिम्मत हारना है। हिम्मत दादी से मिली है। युक्रेन से निकलकर पोलैंड की सीमा में पहूंचते ही राहुल शकून महसूस करता है। राहुल के घर पहुंचने पर सारा घर परिवार खुशी से झूम उठा।

लेखक ने सार्थकता के दृष्टिगत कहानी में भरपूर लोकोक्तियों के साथ मुहावरे का प्रयोग किया है।भूसे में सुई,जान बची लाखों पाए,जीवन कविता तो मृत्यु काव्य, दूर के ढोल सुहावने एवं दकियानूसी ख्याल आदि,जो कहानी में दृष्टांत के रूप में जीवंतता का कार्य करते हैं।
कहानी की समीक्षा करने वालों में प्रोफेसर मोहनकान्त गौतम (नीदरलैंड) डॉ कुंवर वीर सिंह मार्तण्ड (कोलकाता) प्रोफेसर शैलेन्द्र कुमार शर्मा (उज्जैन) रामबाबू गोतम (यू एस ए)प्रोफेसर अजय नावरिया (नयी दिल्ली) प्रोफेसर हरिशंकर मिश्र (लखनऊ) प्रोफेसर गंगा प्रसाद शर्मा गुणशेखर (सूरत) डॉ सुवर्णा जाधव (पूना) प्रोफेसर अर्जुन पाण्डेय (अमेठी) डॉ रश्मि चौबे (गाजियाबाद) प्रोफेसर हरनेक सिंह गिल (लंदन ) डॉ प्रमिला कौशिक (नयी दिल्ली)डॉ ऋषि मणि त्रिपाठी (उत्तर प्रदेश) आदि विशेष उल्लेखनीय रहे।