चीन की चाल: कश्मीर में दखल ठीक, ताइवान में खराब
जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाना उचित था या नहीं, लोकतांत्रिक देश होने के नाते भारत में इस पर आगे भी बहस होती रहेगी। लेकिन किसी देश को इस मामले में जाब्ते से बोलने का अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 370 की समाप्ति की तीसरी वर्षगांठ पर चीन के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता ने तीन साल पहले की टिप्पणी दोहराई कि यथास्थिति में एकतरफा परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रवक्ता ने सलाह दी कि भारत और पाकिस्तान को शांतिपूर्ण ढंग से कश्मीर मसले का हल निकालना चाहिए। चीन ने पाकिस्तान की इस आपत्ति का भी दृढ़ता से समर्थन किया कि अगले साल जम्मू-कश्मीर में जी-20 की बैठक के प्रस्ताव को मंजूर नहीं किया जा सकता। उग्र राष्ट्रवादी विचार वाले अंग्रेजी दैनिक ग्लोबल टाइम्स ने लिखा कि भारत जम्मू-कश्मीर पर अपने नियंत्रण को ही नहीं, प्रभुसत्ता को स्वीकार करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर दबाव डाल रहा है।
गौरतलब है कि यह उस चीन का व्यवहार है, जिसने वर्ष 1963 में पाक अधिकृत कश्मीर ( पीओके ) के सामरिक महत्व के पांच हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक भूभाग को पाकिस्तान की फौजी सरकार से हथिया लिया था। चीन पीओके में कनेक्टिविटी बढ़ाने के लिए कई सड़कें बनाने के साथ ही झेलम पर जल विद्युत परियोजना का निर्माण भी कर रहा है। अंतरराष्ट्रीय विस्तार से प्रेरित चीन की बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई ) को भारत ने इसीलिए ठुकरा दिया है कि वह वाया पीओके निकाली जा रही है। ताइवान संकट बढ़ने पर हू-ब-हू चीन की शब्दावली में भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने पलट जवाब दिया, 'अन्य देशों की तरह भारत भी हाल के घटनाक्रम से चिंतित है। हमारा अनुरोध है कि संयम बरतते हुए, यथास्थिति को बदलने के लिए एकतरफा कार्रवाई न की जाए, क्षेत्र में तनाव कम करते हुए शांति और स्थिरता के लिए प्रयास किए जाएं।' यह वक्तव्य कौशलपूर्ण राजनय का परिचायक था। भारत ने 'एक चीन' नीति में बदलाव न करते हुए भी एक परिवर्तनपूर्ण निरंतरता को नए संदर्भ में रेखांकित कर दिया। अरुणाचल प्रदेश पर दावा करने, जम्मू-कश्मीर के निवासियों को अलग से वीजा नत्थी करने और सिक्किम पर नीति बदलने के बाद वर्ष 2008 में मनमोहन सिंह की पिछली सरकार ने 'एक चीन' नीति पर खामोश रहने का फैसला कर लिया था। चीन को मिर्ची लगनी स्वाभाविक थी।