142 साल पहले अंग्रेजों ने कानपुर में बनवाए थे क्लॉक टावर

in #kanpur2 years ago

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7 घंटाघरों की टन-टन तय करता था टाइम टेबल

कानपुर । अंग्रेजों ने कानपुर को आर्थिक राजधानी के तौर पर विकसित किया था। यहां पर मिलों का जाल बिछाया, जिसके कारण इसे मजदूरों का शहर कहा जाने लगा। अंग्रेजों ने मजूदरों के हितों को ध्यान में रखते हुए घंटाघर बनवाए थे। घनी आबादी में बने इन घंटाघरों की टन-टन से मजदूर भोर पहर उठ जाते और तय समय पर मिल जाकर काम पर जुट जाया करते थे। उस वक्त किसी के पास घड़ी नहीं हुआ करती थी। मजदूरों के अलावा अन्य लोगों को भी घंटाघरों के टन-टन से समय की जानकारी हुआ करती थी।

1880 में बना था शहर का पहला क्लॉक टावर
उस वक्त घड़ी रखना हर व्यक्ति के बस की बात नहीं थी, लेकिन समय जानना भी जरूरी था। इसी के चलते मजदूरों के हितों को ध्यान में रहते हुए अंग्रेज सरकार ने घंटाघर बनवाए जाने का निर्णय लिष। लाल इमली ऊलेन मिल के प्रबंधक गौविन जोंस ने मिल के पूर्वी कोने पर ऊंची मीनार बनवाकर सन 1880 में घड़ी लगवाई थी। इस घड़ी की सुई इंग्लैंड से मंगवाई गई थी। शहर का यह पहला क्लॉक टावर था। इसे बनाने में करीब दो लाख रुपये का खर्च आया था। घनी दोपहरी हो, काले बदलों का डेरा या सर्दी में छोटा होता दिन। घंटाघर की टन सही वक्त बतलाता था। टन-टन की आवाज से मजदूर अपने-अपने कमरों से बाहर निकल आया करते और पैदल ही मिलों की तरफ कदम बढ़ा दिया करते थे।

1912 में बना दूसरा क्लॉक टावर
धीरे-धीरे मिल और मजदूरों की संख्या बढ़ती गई तो एक और क्लॉक टावर की आवश्यकता हुई। दूसरे क्लॉक टावर का निर्माण किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉल फूलबाग में कराया गया। इसका निर्माण सन 1911 में हुआ था। इसके लिए उन्होंने अपने पास से 30 हजार रुपये का सहयोग किया था। 11 जून 1912 को जैमन कोबोल ने इस घंटाघर का शुभारंभ किया था। इसके बन जाने से आसपास के लोग घंटाघर की टन-टन सुनकर समय का पता लगा लेते और जिसे जिस समय पर काम पर जाना होता, वह चला जाया करता था।

तीसरी तो पीपीएन मार्केट में बना चौथा टॉवर
शहर के कोतवाली में तीसरे क्लाक टॉवर के निर्माण की नींव रखी गई। जिसकी घोषणा जनरल रॉबर्ट विंट ने की थी। लेकिन कुछ लोगों ने घंटाघर का विरोध कर दिया और इसके काम पर रोक लग गई। कुछ साल के बाद 1925 में कोतवाली क्लॉक टावर का निर्माण शुरू हुआ। 17 जुलाई 1929 को इस टावर का शुभारंभ हुआ। इसके बाद साल 1931 में कानपुर इलेक्ट्रिसिटी कारपोरेशन की इमारत (अब पीपीएन मार्केट बिजलीघर) में शहर का चौथा टावर बनाया गया। इस टावर के निर्माण में 80 हजार रुपये का खर्च आया था। यह 1932 में शुरू हो गया।

सिंहानिया समूह ने बनवाया कमला टावर
फीलखाना में बने शहर के पांचवें क्लॉक टावर का निर्माण 1934 में जेके उद्योग समूह के मालिक लाला कमलापत सिंहानिया ने करवाया था। उन्होंने अपने समूह के मुख्यालय पर यह टावर बनवाया, जो वर्तमान में कमला टावर नाम से मशहूर है। कहा जाता है कि लाला कमलापत सिंहानिया ने इस टावर की घड़ी को मात्र एक दिन की कमाई से स्थापित कराया था। स्वतंत्रता आंदोलन के उस दौर में एक भारतीय द्वारा इस तरह का निर्माण कराया जाना ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह जैसा था। बावजूद सिंघानिया ने मजदूर और शहर के लोगों के लिए बनवाया।

छटवां टापर कलेक्टरगंज चौराहे पर बना
शहर का छठवां क्लॉक टावर स्टेशन के पास कलक्टरगंज चौराहे पर बना। इस टावर की वजह से ही इसे घंटाघर चौराहे के नाम से जाना जाने लगा। इसका निर्माण सन 1932 में हुआ था। डिजाइन की वजह से ही इसकी तुलना दिल्ली की कुतुब मीनार से की जाती है। यह इकलौता ऐसा क्लॉक टावर है जो स्वतंत्र रूप से बना है। इसके निर्माण में अंग्रेज जार्ज टी बुम का योगदान रहा। इसके निर्माण में पांच लाख रुपये का खर्च आया था।

सातवां टावर स्वरूप नगर में बनवाया गया
कानपुर का सबसे आखिरी और सातवां क्लॉक टावर स्वरूप नगर बाजार में सन 1946 में बनाया गया। इस टावर में घड़ी तो बन गई लेकिन सुई आज तक नहीं लगाई जा सकी। दरअसल उन दिनों आजादी की लड़ाई जोर पकड़े थी। इस कारण कई बार इसका निर्माण बीच-बीच में रुका। माना जाता है कि इसी कारण इस पर सुई नहीं लगाई जा सकी। इसका निर्माण लार्ड विलियम ने कराया था