Story

in #story2 years ago

फुटकर फुटकर बचपन की यादें आती हैं। अब वे किसी चीज़ से जुड़ कर निकलती हैं और सामने हाज़िर हो जाती हैं।
बचपन में मोतीझरा बहुत होता था , साल में एक दो बार।
डाक्टर टायफाइड कहते थे घर में मोतीझरा कहा जाता था।
देर में ठीक होता था ,बीस पचीस दिन लग जाते थे। कभी कभी तो महीना भर भी।
अलग खटोले में लिटा दिया जाता।
बिस्तर माँ बदलती उबाल कर ठंडा किया पानी दिया
जाता,पथ्य दिया जाता ,दवाई खाओ और छत की धन्नियाँ गिनते देखते रहो, पपड़ाये होंठों पर जीभ फेरते रहो। धन्नी में लटकते सन् की रस्सी के खाली छींके को देखते रहो। चिड़ियों के घोंसले और उसमें मुँह खोल खर चिचयाते उसके बच्चों को
देखते रहो, उनके मुँह में दाना रखती चिड़िया को देखते रहो।

जागते हुये सपने बनाते रहो। कॉमिक्स और कोई बच्चों की किताबें नहीं होती थीं। घर में कल्याण आता था ,हिंदीके दोअखबार आते थे हफ्ते में धर्मयुग आता था। कभी कभी
खटिया में लेटे धर्मयुग देख लेता।

सबसे ज्यादा चिड़चिड़ाहट बुखार हल्का होने पर होती।
जो देखता माथे पर हथेली रख कर देखता कलाई पकड़ कर
देखता और कुछ दिलासे की बात कह कर चला जाता।
बस तसल्ली होती कि ट्यूशन वाले पंडित जी और मास्टर साहब को मना किया हुआ है ठीक है।, स्कूल जाना तब ज़रूरी नहीं था।

घर के बड़े लोगों से देखने की दक्षिणा वसूल करता था। अधन्ना और इकन्नी तक चार्ज करता। गुल्लक में डालता और सिरहाने रखता। बीच बीच में हाथ से टटोल कर अपनी गुल्लक छूकर तसस्ली कर लेता। फिर भी चिड़चिड़ापन
सवार होता तो गुझिया की माँग करता ज़िद करता। कालपी
की सबसे मशहूर मिठाई थी। खा नहीं सकता अतः ऊपर
छींके में ठीक सर के ऊपर टाँग दी जाती। ठीक होने पर खाऊँगा इस आशा में गुझियां ऊपर छींके पर झूलती रहतीं।

ठीक होने लगने पर मूँग की दाल का पानीऔर बाद में
गर्म रोटी का ऊपरवाला पतले छिलके का टुकड़ामिलता। खटोले पर बैठने लायक होते और नीचे उतरने लायक होने सेपहले ही अपनी गुझियों के सींके से उतार करअपनी गुझियों की गिनती और मुयायना करता।

अधिकतर फफूँद चुकी होतीं उन पर हरी फफूँद फैल रही होती। फेंकी जातीं आँखों में आँसू आ जाते, होंठ तो पहले से पपड़ाये पड़े होते, दाँत से या नाखून से नोंचते ही खून छलछला पड़ता।
खून का स्वाद नमकीन होता है, उसी समय पता चल गया था।

खिसयाये हुये गुल्लक खोल कर अपनी दौलत गिनता। अधन्ने इकन्नी और कभी कभी गोल छेददार ताँबे के पैसे छाँट कर अलग अलग करता । इस तरह दिन कट जाता या फिर थक कर सो जाता। सन्१९५३-५४ तक मोतीझरा की कुल कमाई
अडसठ रुपये पायी गयी। अम्मा के पास जमा कर दी।

बड़ी बहिन सीता का विवाह हो चुका था। उनको लिवाने
सिहोरा (जबलपुर) जाना था। भाई का जाना जरूरी था।
घर के पुराने कारिंदे ठाकुर चच्चा के साथ भेजा गया। मन ही मन में जबलपुर घूमने और वहाँ से अपने शौक की खरीददारी की योजना बनाली थी। अम्मा से अपने अड़सठ रुपये लेकर
कपड़ों के जेब में सेफ्टीपिन लगा कर रखे। उम्र दस वर्ष की
होगी। सारे खर्चे तो ठाकुर चच्चा को करने थे।
जबलपुर में सिनेमा दिखाया जीजाजी और उनके दोस्त ने।
घुमाया पूछा कुछ खरीदना है। तुरंत कहा कैमरा खरीदना है।
वे आग्फा के शोरूम लेगये, बच्चों के लिये बाक्स कैमरा
ठीक पसंद होंगे ऐसा सोचा गया।
मुझे आग्फा पसंद नहीं आया, कोडक की दुकान देखी गई,
कोडक का ब्लैक बाक्स कैमरा पसंद आया। मय एक रील के
जिसमें आठ फ्रेम में फोटो ली जा सकती थीं, लिया। इसका
भुगतान किसी को नहीं करने दिया । क्या संयोग है कि बुखार की कमाई के अड़सठ रुपये उसके लिये बिल्कुल सही रकम साबित हुई। खरीददारी ६५ या६६रुपये में पूरी हो गयी।

बाद कालपी आकर फोटो खींचना पहले बाहर से डेवलप और प्रिंट कराना फिर अपना डार्करूम बना कर खुद करने लगना

यह सब बारहवर्ष की उमर के पहले ही होने लगा ।
यह कोडक बाक्स कैमरा बहुत दिन चला इसमे बहुत सी कवितायें उतारी गई हैं ।वह कभी कभी ऐसे ही निकल आती हैं निगेटिव मिलते हैं। आजकल डेवलपिंग नहीं कर पा रहा हूँ।
प्रिंट की तो बात ही छोड़ो।

अब यह सब क्यों याद आया। आज एक पुरानी कविता१९६५-६६ की जो उस समय की अच्छी समझी जाने वाली साहित्यिक पत्रिका कल्पना जिसमें कविता छपना सरल नहीं था में छपी ।अपनीउन दो कविताओं के स्मरण के साथ याद आया। क्रमांत और कायर शीर्षक इन कविताओं में उसी
बाक्स कैमरे के अनुभव हैं एक डर का भाव कायर विचार की तरह हर समय आदमी में छुपा रहता है और वह दृश्य को हिला देता है। और एक खुला हुआ छोटा सा चाकू दिमाग में धंसा रहता है , उसका फल साफ पानी में कुछ काट कर निकलता है और क्रमांत कर देता है। ऐसे अमूर्तन की फोटोग्राफी के मूल में बचपन ही है जो अब तक चला आ रहा है।

यादों में धकेलने का श्रेय ---श्री विलास सिंह द्वारा अनुदित
जापानी कथाकार हारुकी मुराकामी की कहानी hunting knife (शिकारी चाकू) को देना होगा, वह दे रहा हूँ।