ख न क

in #poem2 years ago

पहले हाथ मे छोटे सिक्के ही रहते थे
लेकिन वे सब फुटकर विश्वास थे

बड़े और नोट की तरह बंधे विश्वास
हम बच्चों की पहुँच से दूर थे
और हमारी ज़रूरतों से ज्यादा थे

जैसे हम सब खड़ियापलटन समझे जाते
वैसे ही हमारे विश्वास भी
रेजगारी की श्रेणी में डाल दिये जाते थे
लेकिन वे सब खनकदार थे

फिर भी जो थे वे सब खरे थे
छोटे बड़े नहीं
पैसा से लेकर अट्ठन्नी तक
एक जैसी मज़बूती से
कस कर मुट्ठी में दबाये रहते
उनकी मस्ती में मज़ा भी था शान भी

बचपन से उन्हें मुट्ठी में कस कर
दबा कर रखने और
बड़ी किफायतशारी से जरूत पर खर्चते थे
हमने अपने विश्वास लुटाये नहीं

अब मुट्ठी की पकड़ भी
ढ़ीली और कमज़ोर हो गयी है
छोटे सिक्कों की तरह उन विश्वासों का भी
चलन नहीं रहा
हमारे विश्वासों की वैल्यू भी घट चुकी है
कोई नहीं सेंटता है हमारे विश्वासों को

नई चलन की मुद्रा की तरह
कुछ नये विश्वास आगये हैं
अधिकतर वे भी डिजिटल हैं
वे अज़ीब और अनसुनी चीज़ों से
वास्ता रखते हैं
वे ग्लोबल कहलाते वे सेक्युलर कहलाते हैं
वे लोकतांत्रिक पालिश में पाये जाते हैं
आसानी से फिसल जाते हैं
गिरने और खोने पर कोई मलाल नहीं होता है
वे खनकते ज़रा भी नहीं हैं
बिना खनक के हैं

दिमाग से लेकर मन तक
जो खनक उन छोटे छोटे विश्वासों के
टकराने से खनकते से होती थी
वो जाने कब कैसे गायब हो चुकी है
उनकी याद बिल्कुल धुंधली पड़ चुकी है

अब आपसी विश्वास
घर सरकार पर विश्वास सब अपनी खनक
खो चुके हैं खोटे राँगे की सिक्कों की तरह
एक हाथ से दूसरे में होते हुये सरक जाते हैं
वे काग़ज के पर्चो से होते हुये आये और
कम्प्यूटरों की सरसराहट में छिप कर रह रहे हैं

आत्मविश्वास का जो एक कलदार बचा था
वह भी कल परसों कहीं गिर गया
बिना आवाज़ के

एक खनकदार सफर
किस क़दर ठस हो कर रह गया है

दुनिया बिना खनक के ही चल रही है
थोथी बातों पर

कोई किसी पर विश्वास नहीं करता
और सारे काम चल रहे
जीवन व्यापार की खनक जाने कब
महीन धूल के ढेर में गिरा आये पता ही नहीं चला