खामोशी के खिलाफ चिमागोइयाँ

in #poem2 years ago

धरती और आसमान की बातचीत
जाने कब से बंद है
दोनो अपने अपने काम ज़ारी रखे हैं

कुछ चीज़ें हैं जो
कोशिश करती रहती हैं कि
न सही नियमित तौर पर
कम से कम कभार कुछ बात चीत
हो जाया करे

पेड़ों की फुनगियां
पर्वत के शिखर भी
कोशिश करते रहते हैं
लेकिन हर बार कवियों की बेहूदी हरक़तें
बात बिगाड़ कर रख देती हैं

बादल आते हैं आकाश को कुछ झुकाते हैं
इस बहाने कि कुछ कान मे कहना है
नीचे उतरते हैं
धरती से बहिनापा दिखाते है
उसके घर में इधर उधर
ठौर कुठौर
पैर फैला कर लोट लगाते हैं
बेमतलब बतियाते हैं बात कुछ नहीं बनती
और खाली हाथ मलते वापस
लौट जाते हैं मुँह लटकाये

न हरी घास को समझ आया अभी तक
न टिमटिमाते सितारों को
कि आखिर मसला क्या है
सूरज चाँद इन बेमतलब के मसलों में
यूँ भी कभी पड़ते नहीं
वे अपने काम से काम रखते हैं

सबसे ज्यादा उलझन
हवा को होती है
बेचारी को चार घरों का काम है
यहाँ भी जाना है वहाँ भी जाना है
इधर की भी सुनना है उधर भी देखना है
न इसकी कह सकती है न उसकी
और फिर आखिर बात ही क्या है
जब सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है
बिना बोले फिर कुछ भाक कुभाक किसी के
मुँह से निकल जाये
तो क्या होगा

हवा के सर.में दर्द हो रहा है
जाने किसने फैला रखा है ये तनाव
और वह बैठ गई है
एकदम मस्कइयाँ मार कर

हवा आज कहीं नहीं दिखी
वह समुद्र की गोदी में जा घुसी और
वहीं सो गई होगी या बंद कमरे में
गुस्से में उथल पुथल कर रही होगी
या पैर पटक पटक कर नाच रही होगी
खिसया रही होगी भकुर रही होगी
पता नहीं क्या कर रही होगी
फिलहाल वह न चल रही है
न उसकी कोई आहट मिली
गायब है किसी को दिखाई तक नहीं दी

अब जब निकले गी तो
ऐसे निकले गी जैसे
कहीं समुद्दी तूफान आया हो
कहीं काली आँधी आयी हो
कहीं पीला बवंडर उठा हो

अब सबको पता चल जायेगा
और करो बेमतलब की चिमागोइयाँ
इनकी बात नहीं होती
उनकी बात नहीं होती
वह मुँह फुलाये बैठी है
वह उखड़ा उखड़ा बहका बहका मुँह उठाये
भन्नाया रहता है
आखिर सब ये बातें
हवा को ही क्यों सुननी पड़ती थींi